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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३२ (यूँ हो कर देखता हूँ बेबस मैं घर के जालों को )

यूँ हो कर देखता हूँ बेबस मैं घर के जालों को

कि शर्म आ जाती है शहरों में गुम उजालों को

 

गरीबोगुरबा की तमकनत तो है बस आँखों में

जो देखके आ जाती है ऐवाँ में रहने वालों को

 

मैं शाइरोफलसफी हूँ, तसव्वुर ही काम है मेरा

मैं ख़्वाबोंके सीमाब पैरहन देता हूँ ख्यालों को  

 

न दे मुझ को शराब न सही जो तेरी मरज़ी है

पे ये भी बतादे मैं क्या बोलूं सुबूओप्यालों को 

 

ख्वाह न हो कोई जवाब न कोई हल इस हाल

ज़माना देखेगा मुड़ - मुड़ कर मिरे सवालों को 

 

मैं हाज़िर हूँ मुक़ाबिल भी पे अपनी क्या हुर्मत

कि दुनिया सोचेहै बस दुनियासे जाने वालों को

 

मुझे हिम्मत हुई नाउम्मीदी में जब हवा न थी   

कोई चिड़िया हिला रही थी दरख्त-ओ-डालों को

 

कोई माँ पूछती थी बस्ती में खून खराबेके बाद

किधरसे लाऊं मैं अपने घर के बुझे उजालों को

 

गुज़ारी जिस तरहभी ज़िंदगी ऐराज़ हमने यहाँ 

बहा के गंगामें जाउंगा अपने सभी मलालों को

 

 

© राज़ नवादवी

भोपाल, ०४.१५ संध्याकाल

गुरुवार, २०/०९/२०१२

 

तमकनत- तड़क-भड़क; टीम-टाम; ऐवाँ- महल; तसव्वुर- विचार, विचार करना; सीमाब पैरहन- चांदी के कपड़े; सुबूओप्यालों को- शराब की सुराही और प्यालों को; ख्वाह- चाहे; इस हाल- इस वक्त; मुक़ाबिल- सामने; हुरमत- प्रतिष्ठा, इज्ज़त; मलालों को- दुःख, तकलीफ, अफ्सोसों को.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on September 24, 2012 at 9:42am

आदरणीया रेखाजी, आपकी बधाई बाशुक्रिया कुबूल फरमाता हूँ, आपकी दाद से बड़ी हौसलाअफजाई हुई! 

Comment by Rekha Joshi on September 23, 2012 at 7:28pm

राज़ जी

गुज़ारी जिस तरहभी ज़िंदगी ऐराज़ हमने यहाँ 

बहा के गंगामें जाउंगा अपने सभी मलालों को,बेहद खूबसूरत गजल पर बहुत बहुत बधाई 

Comment by राज़ नवादवी on September 22, 2012 at 11:59pm

आदरणीय लक्षमण जी, आपका शुक्रिया. जानूं ब जानूं आपके जवाबात पढके बहुत मज़ा आया!  

Comment by राज़ नवादवी on September 22, 2012 at 11:57pm

आदरणीया राजेश जी, आपका बहुत बहुत आभार! 


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Comment by rajesh kumari on September 22, 2012 at 5:34pm

उम्दा ग़ज़ल इन दो शेरों के लिए तो विशेष दाद कबूल करें ---

कोई माँ पूछती थी बस्ती में खून खराबेके बाद

किधरसे लाऊं मैं अपने घर के बुझे उजालों को

 

गुज़ारी जिस तरहभी ज़िंदगी ऐराज़ हमने यहाँ 

बहा के गंगामें जाउंगा अपने सभी मलालों को

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 22, 2012 at 12:27pm
बहुत उम्दा और अच्छा सनेश देती गजलों के लिए हार्दिक बधाई भाई राज नवादवी साहेब 

मुझे हिम्मत हुई नाउम्मीदी में जब हवा न थी   ------ हमें भी अहसास न था कुछ लिख डालने का 

कोई चिड़िया हिला रही थी दरख्त-ओ-डालों को           हिम्मत मिली राज नवादवी के कलाम से 

 कोई माँ पूछती थी बस्ती में खून खराबेके बाद   ------  एक सूफी संत मिला उस लाल की माँ को 

किधरसे लाऊं मैं अपने घर के बुझे उजालों को            घर जा रौशनी कर,मिलेगा घर का चिराग वो 

 गुज़ारी जिस तरहभी ज़िंदगी ऐराज़ हमने यहाँ ------   जाने से पहले बहा आना अपने सभी मलालों को 

बहा के गंगामें जाउंगा अपने सभी मलालों को             पाक गंगा को इन्तजार खुदा के पास जाने वाले का 

                                                                                शुक्रिया 

  

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