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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-74 (विषय: अनुभव)

आदरणीय साथियो,
सादर नमन।
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-74 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है. प्रस्तुत है:
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-74
विषय: "अनुभव"
अवधि : 30-05-2021 से 31-05-2021 तक
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अति आवश्यक सूचना :-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फ़ॉन्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, १०-१५ शब्द की टिप्पणी को ३-४ पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है।
4. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाए रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पाएँ इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है। गत कई आयोजनों में देखा गया कि कई साथी अपनी रचना पोस्ट करने के बाद ग़ायब हो जाते हैं, या केवल अपनी रचना के आसपास ही मँडराते रहते हैंI कुछेक साथी दूसरों की रचना पर टिप्पणी करना तो दूर वे अपनी रचना पर आई टिप्पणियों तक की पावती देने तक से गुरेज़ करते हैंI ऐसा रवैया क़तई ठीक नहींI यह रचनाकार के साथ-साथ टिप्पणीकर्ता का भी अपमान हैI
5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा ग़लत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताए हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिसपर कोई बहस नहीं की जाएगी.
6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फ़ोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने /लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें।
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

एक सत्य यह भी

कक्षा में रामधन को अनुपस्थित देख कर शिक्षिका ने गाँव के बच्चों से पूछा " रामधन आज क्यों नहीं आया? " किन्तु किसी को पता नहीं था। "पढ़ाई की कद्र नहीं है " वह मन ही मन में बुदबुदाईं। फिर उन्होने सोचा ,"कहीं बीमार ना हो?"  पाठशाला का समय समाप्त होने पर पता करूँगी।"

वह जब रामधन के घर पहुँची,उसकी माँ ने परेशान होते हुए कहा,"हमसे तो स्कूल के लिए कहि कर गवा है।आवन देव , अच्छे से ओहकी ख़बर लेब।" तभी रामधन आता दिखा। "रामधन तुम स्कूल क्यों नहीं आए?" शिक्षिका पूछने जा ही रही थीं कि उसकी माँ ने कहा" काहे तुम कहाँ रहौ? स्कूल काहे नहीं गए।" "तुम ही तो कहा रह्यो कि बकरियाँ चरा लाओ" माँ रामधन को आँखें दिखा रही थी। रामधन हैरान और शिक्षिका स्तब्ध थीं। ऐसे अनुभव की उन्हे अपेक्षा न थी।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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सादर प्रणाम,आदरणीया। बहुत अच्छी लघु कथा हुई हार्दिक बधाई स्वीकार करें। 

आ0 रक्षिता सिंह जी , प्रणाम। लघु कथा पसंद आई, जान कर खुशी हुई । हार्दिक धन्यवाद आपको ।

यह बहुत बड़ा कटु सत्य हैं बच्चों के स्कूल ना आने का।

बेहतरीन रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई, दी।

बढ़िया रचना विषय पर, ऐसा होता है. बधाई इस रचना के लिए आ उषा अवस्थी जी

आ0 विनय कुमार जी,रचना आपको अच्छी लगी, मेरा लिखना सार्थक हुआ। बहुत- बहुत धन्यवाद आपको।

दोहरी मानसिकता को उजागर करती बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई

सादर नमस्कार। विषयांतर्गत कम शब्दों में मारक क्षमता वाली यथार्थपूर्ण लघुकथा कहने हेतु हार्दिक बधाई मोहतरमा ऊषा अवस्थी साहिबा। शीर्षक कोई और भी सोचा जा सकता है इससे बेहतर। पात्रों के अनुसार क्षेत्रीय भाषा के संवादों हेतु विशेष बधाई।

आ. ऊषा जी, अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई।

आ0 बबिता जी , आपने सही कहा, मेरे पास ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ माता -पिता पढ़ाई के स्थान पर बच्चों से काम कराना अधिक पसंद करते हैं। उन्हे पढ़ाई की कीमत ही नहीं मालूम।

हार्दिक आभार आपका 

"अनुभव"

चचा की बात मान ली होती तो आज ये दिन ना देखना पड़ता, तेरी बातों में आकर,अच्छा मैंने मुर्गी फार्म खोल लिया...घर में एक फूटी कौड़ी ना आयी और सारा पैसा ढेर हो गये। सब तेरे कारन हुआ है.... गुस्से से बौराया लाखन अपनी पत्नी सुरैया को जानवरों की तरह पीट रहा था। मार-पीट और शोर शराबे की आवाज सुनकर लाखन के दरवाजे पर भीड़ इकट्ठी हो गयी। लाखन आपे से बाहर हो चुका था बहुत प्रयासों के बाद जब कोई झगड़ा शान्त ना करा सका तो तो चचा को खबर देकर बुलबाया गया।
एक चचा ही तो थे, जिनकी बात पूरा गाँव सुनता था और सुनता भी क्यों ना आखिर चचा थे भी तो सबसे पुराने, इतने पुराने जितने आज के जमाने में 'तलत महमूद' के गाने। पुराने होने के साथ साथ चचा बहुत अनुभवी व्यक्ति थे। वे दोपहर भर चौपाल पर बैठे अपने अनुभवों की कहानी बाँचते रहते। कोई व्यापार शुरू करना हो, रिश्ते की बात हो, कोट कचहरी का मामला हो या खेतों में बुआई,जमीन के बँटवारे से लेकर
आपसी मतभेद तक, समस्या कोई भी हो पर समाधान एक ही थे...चचा ! गाँव तो गाँव, आन गाँव के लोगों के ह्रदय में भी चचा में प्रति पूर्ण श्रद्धा व निष्ठा थी।
एक दिन की बात है रात्रि के ग्यारह बजे थे कि किसी ने चचा के दरवाजे पर दस्तक दी। (चचा का परपोता) हरिया ने दरवाजा खोला। तो देखा बिरजू लांटेन लिए खड़ा था। "क्या हुआ काका...इतनी रात में" हरिया ने ओंघते हुए कहा।
"जरा चचा को बुला दे लल्ला जरूरी काम है" बिरजू ने उत्तर दिया। हरिया ने जाकर चचा को जगाया, चचा धोती संभालते हुए बाहर आये। "क्या हुआ बिरजू सब कुशल मंगल तो है" चचा ने चिंतित होकर पूँछा। "का बताऐं चचा, जे नाशपीटा रमना हमें जीने नहीं देता। पिछली साल से इसको बम्बई जाने का भूत सबार है, कहता है टीवी में काम करेगा। इतने दिन से तो सब ठीक ही था पर शाम को हमने इसके बिहा की बात कह दी तब ही से पगलाया है। झोला उठाके जाने को तैयार है...हम तो हार गए, अब आप ही चलके समझायें।"
चचा को इतनी रात में बिरजू के साथ जाता देख, एक से दो, दो से चार, चार से आठ... और इसी तरह कई गाँव बाले जिज्ञासावश उनके पीछे हो लिये। चचा ने सभी को विषय से परिचित कराया और लौट जाने को कहा पर कोई लौटने को तैयार ना था। बिरजू के घर जा पहुंचकर.... चचा ने रमना को समझाने का भरसक प्रयास किया पर फिर भी उसे समझ ना आया तो चचा, उसे अपने जीवन का वाक्या सुनाने लगे....
" देख रमना, मैं भी गया था बम्बई। सोचकर कि कुछ कमाई करूँगा, पर हाथ क्या आया ? फूटी कौड़ी भी नहीं। जो घर से बाँध ले गया था सो भी गँवा आया। बड़े ठग हैं वहाँ के लोग....। मैं तुझे अपने "अनुभव" से बता रहा हूँ ,कोई लाभ ना होगा वहाँ जाकर। "
चचा की बात खत्म होते ही गाँव वालों ने भी,जी भरकर उसे समझाया..पर रमना कहाँ किसी की सुनने बाला था। उन सबसे पीछा छुड़ाने को रमना ने बड़े शान्त भाव से कहा " आप सब मेरे लिए इतनी रात्रि में परेशान हुए हैं तो अवश्य ही मैं आपकी बातों पर विचार करूँगा । रमना की बात सुनकर सब को थोड़ा धैर्य हुआ, सभी अपने अपने घर बापस लौट गये। रमना ने फिलहाल रात्रि में जाने का विचार तो त्याग ही दिया था पर रात्रि भर उसे नींद ना आयी सो वह सोने का स्वांग रचता रहा । भोर हुई, तो उसने देखा उसकी माँ, बाप,छोटी बहन सब बेसुध पड़े सो रहें हैं। मानो उसे इसी क्षण की तो प्रतिक्षा थी । उसने बिना विलम्ब किये अपना झोला उठाया और घर से निकल गया। कुछ दूर जाके ह्रदय में आया कि एक बार चचा से मिलता जाये सो चौपाल की तरफ चल पड़ा। भोर होते ही चचा चौपाल पर चले आते ये उनका रोज नियम था सो आज भी वे उसे चौपाल पर ही मिले।
"राम राम चचा... मैं जा रहा हूँ। जाते जाते तुमसे क्षमा माँगने आया था, तुम्हारी बात ना मान कर मैंने तुम्हारा अपमान किया है। हो सके तो मुझे माफ कर देना।" चचा कुछ ना बोले बस स्तब्ध होकर उसे देखते रहे।
"मैं जानता हूँ चचा, तुम मुझसे नाराज़ हो पर क्या इतने नाराज़ हो कि मुझे आशीर्वाद भी ना दे सकोगे। तुम मुझे आशीर्वाद दोगे तो मैं अवश्य ही सफल होउँगा चचा।" कहते हुए रमना ने चचा के पैर पकड़ लिए। चचा ने रमना के सर पर हाथ फेरा और उसे शहर जाने वाली बस से आशीर्वाद देकर विदा किया ।
दिन चढ़ते ही गाँव में रमना के जाने की खबर फैल गयी पर चचा ने रमना से हुयी भेंट की बात का, किसी से जिक्र तक ना किया। धीरे धीरे समय बीतता जा रहा था रमना की कोई खबर ना आयी। इन चार सालों में बिमारी के चलते चचा ने भी अब खाट पकड़ ली थी, मानों अन्तिम सांसें ही गिन रहे थे। कुछ दिन के मेहमान चचा अपने घर के बाहर नीम के पेड़ के नीचे खटिया पर पड़े थे कि एकाएक लोगों के शोर और कदमों की आहट से वे घबराकर उठ बैठे। देखा तो सब के सब चौपाल की ओर भागे जा रहे थे। चचा ने एक को बुलाकर पूँछा तो उसने कहा " रमना आज टीवी पर आयेगा सेठ के यहाँ उसका टेलीफोन आया था, सो उनके नौकर ने आकर अभी खबर दी। चौपाल पर टीवी की व्यवस्था की है सो सब उधर ही जा रहे हैं। "
"मुझे भी ले चल.. चचा ने कहा। सो उनकी खटिया भी वहीं डाल दी गयी।" कुछ ही मिनटों में दूरदर्शन पर रामायण शुरू हो गयी, जिसके प्रारम्भ में सूचना दी गयी कि किसी कारणवश पुराने कलाकार के शो छोड़ देने के कारन राम के किरदार में अब एक नये कलाकार दिखाई देंगें और वो नया कलाकार कोई और नहीं अपना रमना ही था। रमना को देखकर सभी गाँव वालों के चेहरे खिल गये। उन दिनों टीवी पर आना कोई छोटी बात ना थी। यकायक चचा के कानों में रमना के वे स्वर गूंजने लगे जो अंतिम भेंट पर उसने कहे थे "आप आशीर्वाद देंगे तो मैं अवश्य ही सफल होउँगा चचा।" प्रफुल्लित मन से चचा उस विचार में खो गये जब उन्होंने रमना के सर पर हाथ रखकर उसे आशीर्वाद दिया था, कि इतने में पीछे से किसी की आवाज उनके कानों में पड़ी...."अच्छा हुआ जो इसने चचा की बात नहीं मानी।" आवाज सुनकर चचा मुस्काये और फिर अपनी आँखें मूंद लीं।

( मौलिक व अप्रकाशित )

आदाब। बहुत मेहनत और लगन से लिखा है आपने बढ़िया संवादों और भाषा-शिल्प में।  हार्दिक बधाइई आदरणीया रक्षिता सिंह जी। लेकिन रचना लम्बी ओर कहानीनुमा हो गई है। मेरे विचार से यह लघुकथा नहीं हुई। इसमें कालखण्ड दोष भी है लघुकथा संदर्भ में बतौर कहानी यह शानदार रचना है।  ओबीओ में आदरणीय सर योगराज जी के लघुकथाक्षविधा पर आलेख आपने पढ़ लिये होंगे। बार-बार पढ़ियेगा और उत्कृष्ट लघुकथायें पढ़ते रहिएगा वरिष्ठजन की। आप बढ़िया शिल्प में बढ़िया लघुकथायें कह सकती हैं। सादर।

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