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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-62

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 62 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह मशहूर शायर जनाब  "शाद अज़ीमाबादी"  की ग़ज़ल से लिया गया है|

 
"मेरी तलाश में मिल जाए तू, तो तू ही नहीं।"

1212 1122 1212 112

मुफाइलुन फइलातुन मुफाइलुन फइलुन

(बह्रे मुज्‍तस मुसम्मन् मख्बून मक्सूर)
रदीफ़ :- ही नहीं 
काफिया :- ऊ (तू, लहू, गुफ्तगू, जुस्तजू, अदू आदि)

 

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 21 अगस्त दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 22 अगस्त दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

अच्छी ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकारें भाई लक्षमण धामी जी I तीसरे शेअर में "चामका" को "चमका" कर ले I

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, ग़ज़ल पर दाद हाज़िर है. रचना पर पुनः उपस्थित होता हूँ. सादर 

आदरणीय लक्ष्मण जी, अच्छी ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकारें सर।

आदरणीय लक्ष्मण धामीजी,  आपकी सहभागिता केलिए हार्दिक धन्यवाद और शुभकामनाएँ. 

आपकी ग़ज़ल के क़ाफ़िये ठीक हैं. लेकिन जाने क्यों वे प्रतिरोपित हुए अधिक लग रहे हैं. जैसे क़ाफ़िये के इर्द-ग़िर्द कुछ शब्द जमा कर शेर बन लिएय् गये हों.  यह सही है कि इस बार काफ़िया तनिक विशेष लिहाज का है और ऐसे शब्द अनायास आयेंगे ही जो ख़ालिस ज़ुबान की उर्दू से ही आयेंगे. लेकिन वो कमसेकम शेर में पिरोये हुए तो हों. दूसरी बात कि, विकास-ए-सू  जैसे प्रयोग को बहुत सही नहीं माना जाता. फिर ’चाकसू’ जैसा नितांत विशिष्ट शब्द ग़ज़ल को अलग ही रूप देता है जिसे बहुत मान नहीं मिलता.

मैं सारी बातें मान्य या अब स्वीकार्य हो चुकी मान्यताओं के आधार पर कर रहा हूँ.

भले मतला + चार शेर हों लेकिन उनका वज़ूद हो, उन्हीं के सापेक्ष हम सीखें. गलत होगा तो सुधीजन स्व्यं सिखायेंगे कि गलत क्या हुआ है. अगर सही होगा तो उससे भी आश्वस्ति होगी कि चलो सहभागिता प्रामाण्णिक हुई. 
विश्वास है, ग़ज़ल प्रस्तुतीकरण के सापेक्ष मेरी बातें तार्किक लगेंगीं. 

सादर

आदरणीय लक्ष्मण भाई , बहुत अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।

आदरणीय हिन्दी शब्दों के साथ इजाफत का उपयोग क्या सही है -- विकास-ए- सू  ?

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं. बाकी गुणीजनों द्वारा संकेत किया जा चुका है. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई 

बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है आ. लक्ष्मण धामी जी। बधाई स्वीकार करें।

रखो न आस की होगी हदों की बात सफल
नजर में उसकी तो हमसे बड़ा अदू ही नहीं--- समसामयिक तंज । बहुत खूब।

सुन्दर मतला 

करेगा  क्या  वो  वफाएं  जहाँ में यार बता
वफा की राह की उसको तो आरजू ही नहीं----बहुत खूब 

 उर्दू शब्दों का खूब इस्तेमाल किया आपने 

सुन्दर ग़ज़ल कही दिल से दाद लीजिये आ० लक्ष्मण धामी भैया 

जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब,आपकी ग़ज़ल पसंद आई शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें,हाँ एक बात और,हिन्दी शब्दों के साथ इज़ाफ़त नहीं लगती।
जताए प्यार भले ही अवाम से वो बहुत
मगर वो भूप ही क्या है जो तुन्दखू ही नहीं.. ख़ूब.. बहुत ख़ूब
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, कई अशआर ख़ूबसूरत हैं. अंतिम शे'र भी हक़ीक़त है. हार्दिक बधाई आपको. सादर

अच्छी  ग़ज़ल पेश हुई है आ० लक्ष्मण धामी जी 

हार्दिक बधाई 

सही दिखा न सके राह जो गुरू ही नहीं

सुरूर बूँद में जिसकी न हो सबू ही नहीं

 

चमन में पाक़ मुहब्बत का रंग है ही कहाँ

जवाँ रगो में रवाँ लाल वो लहू ही नहीं

 

नमाज़ के लिए लिक्खे हुए उसूल यहाँ

है रायगा ये अकीदत अगर वजू ही नहीं

 

तुझे ख़याल है कितना ये मैंने देख लिया

मेरी तलाश में मिल जाए तू तो तू ही नहीं

 

 जिगर में त़ाब है जिसके वो सामने से लड़ें

 कमर पे छुप के करे वार वो अदू ही नहीं

 

  उदास होंगे पैमाने उदास होगी शमा

 हुजूर जश्न में गर उनकी गुफ़्तगू ही नहीं

 

उसी समाज का हिस्सा है ‘राज’ तू भी यहाँ

नजर में जिसके गरीबों की आबरू ही  नहीं 

रायगा =व्यर्थ 

अकीदत =श्रद्धा/उपासना

अदू =शत्रु

वजू =हाथपैर धोकर शुद्धि करने वाला जल

सबू =शराब का मटका

मौलिक एवं अप्रकाशित  

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