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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-102

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 102वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब फ़ानी बदायूनी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|

"उन के कानों तक न पहुँचा और फ़साना बन गया"

2122     2122     2122     212

फाइलातुन     फाइलातुन      फाइलातुन      फाइलुन       

(बह्र: बह्र-ए-रमल मुसम्मन महजूफ )

रदीफ़ :-बन गया 
काफिया :- ( फसाना, बसेरा, निशाना, सहरा, लैला , आदि)

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 28 दिसंबर शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 29 दिसंबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

 

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 28 दिसंबर दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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ग़ज़ल 

 इक मकाँ पक्की सड़क पर क्या हमारा बन गया

दोस्तो, दुशमन उसी दिन से ज़माना बन गया


मैं तो पीतल था मेरी क़ीमत यहाँ कुछ भी न थी

आपने अपना लिया तो मैं भी सोना बन गया

कैमरे में कै़द करते जा रहे थे यार सब

उनकी नज़रों में मिरा मरना तमाशा बन गया 

" वाक़िआ अपना सदाक़त से मुज़य्यन था मगर"

उनके कानों तक न पहुँचा उर फसाना बन गया सर


बर्फ़ का कुहसार था "सुरख़ाब "मेरी आँख में

उसके ग़म की धूप चमकी तो ये दरिया बन गया

मौलीक /अप्रकाशित

जनाब सुरख़ाब बशर साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

आपने ग़ज़ल तीन बार पोस्ट कर दी है ।

मोहतरम  समर कबीर साहिब  आपने ख़ाकसार की ग़ज़ल पे दाद दे कर 

मेरे होसला अफ़जाई फरमाई 

आपका बहुत शुक्रिया 

वाह, अच्छी ग़ज़ल हुई है मोहतरम सुरख़ाब बशर साहिब बहुत बधाई आपको

आदरणीय सुरखाब बशर जी, सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें. सादर. 

आम-इंसां इसके हाथों का खिलौना बन गया,
हुक्मरां ज़म्हूरियत में भी विधाता बन गया।

मुफ़्त की हर चीज़ हमको कर रही है आलसी,
हम को लगता, चैन से खाने का ज़रिया बन गया।

जो बड़े बेफ़िक्र होकर लड़ रहे थे हर चुनाव,
फाँस उनके कंठ की ताज़ा नतीजा बन गया।

हार से जो, सबकी नजरों में गधा था कल तलक,
जीत से वो, हर किसी का बाप-दादा बन गया।

चींटियों को पर निकलते ही मसल देता था जो,
अंत में वो चींटियों का ही निवाला बन गया।

भीड़ का दिल जीतने को क्या किया हाकिम ने सुन,
लूट कर इस ओर से, उस ओर दाता बन गया।

एक जैसी शक्लो-सूरत की हज़ारों मूर्तियाँ,
हाँ ये मुमकिन है अगर इक बार साँचा बन गया।

हम ने बोली थी बड़े ज़ोरों से अपने दिल की बात,
*उनके कानों तक न पहुंची और फ़साना बन गया।*

बेरहम मौसम से मैंने यूँ हिफाज़त की तेरी
सर्दियों में आँच की, गर्मी में छाता बन गया।

पुछल्ले:

हम ने उसके हाथ के खाने की क्या तारीफ़ की
वो किसी होटल में जाकर ख़ानसामा बन गया।

सर पे चोटी, चिकना चेहरा, क्रीम-खड़िया भी मले,
आज का ये मर्द सूरत से जनाना बन गया।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

बहुत खूब अजय जी  मुबारकबाद कुबूल कीजिये  अच्छी  ग़ज़ल हुई है |

शुक्रिया अनीस जी

अच्छी ग़ज़ल हुई आ. अजय जी हार्दिक बधाई आपको इस ग़ज़ल के लिए। पुछल्ले मज़ेदार हैं।

अलबत्ता, मतले के सानी को कहन के हवाले से एक बार फिर से देखियेगा। भी शब्द से मतलब कुछ और निकल रहा है।

शुक्रिया शिज्जू साहब

"भी" जानबूझ कर लिखा है।

राजशाही में तो हुक्मरां खुद को विधाता समझता ही है, जम्हूरियत में भी ऐसा ही हो गया।

यह कहने का प्रयास है।

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