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अहसास की ग़ज़ल-मनोज अहसास

2×16

अशआर की आंखें खुलती है, जब सारा आलम सोता है।
मेरे कमरे में रात गए तंजीम का मौसम होता है।

तकदीर के हाथों सौंप दिया जब तूने मुझे महबूब मेरे,
मेरी हालत को सुनकर क्यों अब तन्हाई में रोता है।

खुशियों से गम का रिश्ता जग में ऐसा लगता है हमको,
कोई हाथों में रसगुल्लें देकर पीठ में कील चुभोता है।

मैंने तो सदा चाहा है यही इस गम को रिहा कर दूं खुद से,
हर और शिकारी बैठा है और ये पिंजरे का तोता है

उसकी मेहनत का फल उसको जाने क्यों देर से मिलता है,
जो सपनों को आंखों में भर खेतों में पसीना होता है।

गुटखे की महक से उसके पिता के होंठ नहीं थकते हैं कभी
पर एक अदद कॉपी के लिए वो व्याकुल बच्चा रोता है

धो लेते हैं हम भी मन अपना वो खाक हुए जज्बात उठा,
जैसे कोई धोबी गंदे पानी में कपड़े धोता है ।

बच्चे आखिर में आपस में उस दौलत पर लड़ जाते हैं,
जिसकी खातिर इक बाप जमाने भर का कचरा ढोता है।

ऐसे ही नहीं खींच पाए हैं यें दर्द के नक्शे कागज पर ,
'अहसास' की मिट्टी को हमने यादों के फल से जोता है।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by मनोज अहसास on January 28, 2020 at 4:57pm

आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार मैं इस गजल पर दोबारा काम करूंगा क्योंकि इसमें कई गलतियां दिख गई हैं श्री सुरेंद्र जी की बात पर पूरा ध्यान देने की कोशिश करूंगा आशीर्वाद बनाए रखें सादर आभार

Comment by Samar kabeer on January 21, 2020 at 9:08pm

जनाब मनोज अहसास जी आदाब,लगता है ये ग़ज़ल आपने जल्द बाज़ी में कही है ।

'मेरे कमरे में रात गए तंजीम का मौसम होता है'

इस मिसरे में 'तंजीम' का क्या अर्थ लिया है आपने?

'कोई हाथों में रसगुल्लें देकर पीठ में कील चुभोता है'

इस मिसरे की बह्र चेक करें ।

'उसकी मेहनत का फल उसको जाने क्यों देर से मिलता है,
जो सपनों को आंखों में भर खेतों में पसीना होता है'

इस शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़' कुल्ली का दोष है ।

'धो लेते हैं हम भी मन अपना वो खाक हुए जज्बात उठा'

इस मिसरे का कथ्य स्पष्ट नहीं है ।

'बच्चे आखिर में आपस में उस दौलत पर लड़ जाते हैं'

इस मिसरे में 'में' शब्द दो बार मिसरे को कमज़ोर कर रहा है ।

'ऐसे ही नहीं खींच पाए हैं यें दर्द के नक्शे कागज पर'

इस मिसरे की लय बाधित है ।

इस बह्र के बारे में पहले भी आपको समझाइश दे चुका हूँ ।

जनाब सुरेन्द्र जी की बात से सहमत हूँ ।

Comment by मनोज अहसास on January 21, 2020 at 7:24pm

मैं भी प्रयास करूंगा मित्र

Comment by नाथ सोनांचली on January 21, 2020 at 7:40am

आद0 मनोज जी,, समय तो शायद हम सभी के पास नहीं है मित्र। बस इसी भागमभाग में साहित्य रस लेने की महत्वाकांक्षा हमें दुसरो की रचनाओं पर बरबस खीच लाती है। कल्पना कीजिये आपने रचना डाली और कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली,, तो कैसा अनुभव होगा। प्रतिक्रियाएँ हम साहित्यकारों के लिए संजीवनी होती है। अब रही बात योग्य सुयोग्य कि तो मैं भी उस के लायक खुद को नहीं समझता पर आप सबकी रचनाओं पर अपनी समझ के हिसाब से उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश करता ही रहता हूँ।

Comment by मनोज अहसास on January 20, 2020 at 10:06pm

उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक शुक्रिया आदरणीय मित्र आपने ठीक कहा मैंने रचना पर प्रतिक्रिया कम ही दे पाता हूं दरअसल मैं थोड़ा सा व्यस्त ज्यादा रहता हूं इसलिए प्रतिक्रिया नहीं दे पाता दूसरी बात यह है कि मैं अभी स्वयं ही सीख रहा हूं तो किसी दूसरे की रचनाओं में कोई त्रुटि बता पाना भी मेरे लिए संभव नहीं है सादर अभिवादन

Comment by नाथ सोनांचली on January 20, 2020 at 2:48pm

आद0 मनोज अहसास जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने,, बधाई स्वीकार कीजिये। एक निवेदन है, समयानुकूल और लोगों की रचनाओं पर भी प्रतिक्रिया दिया करें। सीखने सिखाने को मिलेगा। सादर

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