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ग़ज़ल: हर शख़्स ही लगा हमें तन्हा है रात को

२२१ २१२१ १२२१ २१२

चंदा मेरी तलाश में निकला है रात को!

शायद वो मेरी चाह में भटका है रात को !!

 

होती है उम्र उतनी ही जितनी कि है लिखी!

जलता दिया भी देखिये बुझता है रात को!!

 

आँखों के डोरे कर रहे सब कुछ बयां यहाँ!

लगता है तेरा ख्वाब भी उलझा है रात को!!

 

दुनिया की भीड़ में मेरा दिन तो गुज़र गया!

हर शख्स ही लगा हमें तनहा है रात को!!

 

बदनामियों के डर से ही हम तो सिहर गए!

हर ख्वाब जैसे अपना  ही रोया है रात को!!

 

मेरी हसीन मह्ज़बीं शरमा के रह गयी!

आगोश में लगा कोई सिमटा है रात को!!

 

अप्रकाशित एवं मौलिक

 

आभा सक्सेना दूनवी

 

 

 

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Comment

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Comment by Samar kabeer on July 19, 2019 at 11:50am

मुहतरमा आभा सक्सेना जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'जलता दिया भी देखिये बुझता है रात को'

दिया तो रात को जलता है,अंतिम रात में बुझता है,इस बिन्दु पर ग़ौर करें ।

'आँखों के डोरे कर रहे सब कुछ बयां यहाँ'

इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखें,इसे यूँ कर सकती हैं:-

'आँखों के डोरे करते हैं सब कुछ बयाँ, यहाँ'

'दुनिया की भीड़ में मेरा दिन तो गुज़र गया!

हर शख्स ही लगा हमें तनहा है रात को'

इस शैर में शुतरगुरबा दोष है,सानी मिसरे में 'हमें' की जगह "मुझे" कर लें,दोष निकल जायेगा ।

'बदनामियों के डर से ही हम तो सिहर गए!

हर ख्वाब जैसे अपना  ही रोया है रात को'

इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं है,दोनों मिसरों में रब्त पैदा करने का प्रयास करें ।

'मेरी हसीन मह्ज़बीं शरमा के रह गयी!

आगोश में लगा कोई सिमटा है रात को'

इस शैर का भाव भी स्पष्ट नहीं है,'मेरी हसीन,महजबीं' कौन?

Comment by Abha saxena Doonwi on July 16, 2019 at 5:30pm
आदरणीय प्रदीप देवीशरण भट्ट जी पसंदगी के लिए आभार आपका
Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on July 16, 2019 at 4:33pm

बहुत खूब बधाई

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