For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

“दर्द के दायरे”  यह ख़याल मुझको  एक  दिन नदी के किनारे पर बैठे “ जाती लहरों ” को देखते आया । कितनी मासूम होती हैं वह जाती लहरें, नहीं जानती कि अभी कुछ पल में उनका अंत होने को है । जिस पल कोई एक लहर नदी में विलीन होने को होती है, ठीक उसी पल एक नई लहर जन्म ले लेती है .... दर्द की तरह । दर्द कभी समाप्त नहीं होता, आते-जाते उभर आती है दर्द की एक और लहर, और अंतर की रेत पर मानो कुछ लिख जाती है । मेरी एक कविता से कुछ शब्द ...

 

उफ़्फ़ ! कल तो किसी की चित्ता पर भी

मेरे आँसू न बहे.... कया करूँ

क्या इतना सूख गया हूँ मैं ..... ?

 

ज़ाहिर है कि दर्द के दायरों में छटपटाहट है जो “उस” पल न जीने देती है, न रोने देती है,  हाँ बस “उस” दर्द को सोचने देती है  । सोचते-सोचते दर्द के दायरों में उत्पन्न होती है एक और कविता, ठीक नदी में उठती लहरों की तरह । संवेदनाएँ भावों में बहती, लिखने को विवश करती हैं। यह है अंतर्मन की कशमकश को प्रदर्शित करती मेरी कवितायों की उत्पत्ति ।

 

मेरी कवितायों को पढ़ने के उपरान्त एक माननीय पाठक ने कभी मुझसे पूछा, “इतनी वेदना क्यूँ ?” ... उत्तर में यही कहूँगा कि नदी में लहरें कभी समाप्त होती हैं क्या ? खामोश हवायों के बीच जब लगता है कि सब कुछ शांत है, समतल जल के नीचे पानी हिल रहा होता है ... और सांसारिक हवा का एक और झोंका आते ही जैसे  वह पानी तुरंत चौकन्ना हो जाता है  ... दर्द चौकन्ना हो जाता है।

 

यह माननीय पाठक मेरी कवितायों पर प्रतिक्रिया प्राय: काव्य में देती हैं, अत: वह मेरी कवितायों को केवल पढ़ती ही नहीं,उनको जी लेती हैं। इस संदर्भ में मैं कवि उमाकांत मालवीय जी के कथन से सहमत हूँ। उन्होंने कहा ...

 

                 कविता  पढ़ना,  कविता  को  रचना  एक  बात  है,

                 और  कविता  को  जीना  नितांत  भिन्न  बात  है ।

                 कविता पढ़ना,  कविता  रचना  और कविता जीना

                 यह  तीनो  गुण  एक  व्यक्ति  में  आ  पाना  अत्यंत

                 दुर्लभ स्थिति है । (“गंगा एक अविराम संकीर्तन में”)

                 

           

जीवन में वह मोड़ भी आते हैं जब “सही” और “गलत” जानते हुए भी भावनायों के कारण हम “सही” की और नहीं जा पाते । तब उठती है अंतर्द्वंद्व की प्राकाष्ठा ... तब सवाल और सवालों के जवाब अपने मान्य खो बैठते हैं  और भावों की सृष्टि पर जन्म लेती हैं और कविताएँ। ऐसे में अनुभव की सचाई भीतर से बाहर पन्ने पर उतरती है। अपनी इस सचाई को जीना मेरे लिए अनिवार्य रहा है, अत: जो भी लिखता हूँ, वह मेरे अनुभवों की सचाई है।

 

“खालीपन“ का “भारीपन”... यह एक वह विचित्र मनोदशा है जो प्रेरणा-स्वरूप मेरा हाथ, मेरी कलम पकड़ कर लिखने को मुझ को झकझोरती है। कोई कुछ भी कह ले, यह लिखना आसान नही है, क्यूँकि खालीपन के भारीपन को पन्ने पर उतारते मैं प्राय: मानो स्वयं खाली-सा हो जाता हूँ । इसका अभिप्राय यह नहीं कि दर्द की क्षती हो जाती है । यही तो द्वंद्व है ... उस समय दर्द तरल नहीं होता, ठोस हो जाता है ... मन पर जैसे सचमुच पत्थर-सा भार हो।

 

मेरी कलम की ताकत दर्द है जो निजी होकर भी निजी नहीं होता। अपना दर्द तो अपना ही है, मुझ को औरों का दर्द भी अपना-सा लगता है। दर्द निजी नहीं है, तभी तो किसी की आत्मीय कवितायों को पढ़ कर प्राय: पाठक  को लगता है कि जैसे वह कृति उसके लिए ही रची गई हो, कि जैसे लेखक ने उसके ही भावों को शब्दबद्ध किया हो।

 

दर्द का आधार अलग हो सकता है, उसकी भूमिका अलग हो सकती है, परन्तु दर्द में प्रच्छन आभास एक ही होता है। इसीलिए दर्द की कविता संवेदनशील पाठक को अच्छी लगती है और पढ़ते ही आत्मीय हो जाती है।

 

यह आलेख  " दर्द के  दायरे ” हिन्दी के उन पाठकों को समर्पित है जो “खालीपन” के “भारीपन“ को अनुभव करने से कतराते नहीं हैं, अपितु उसे प्रेरणा-स्वरूप वरदान समझ कर अपने और “औरों” के प्रति संवेदनशील रहते हैं।

                                         -----------------------------------------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 798

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by vijay nikore on November 8, 2018 at 11:20pm

आदरणीय नरेन्द्र सिंह जी, सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

Comment by vijay nikore on November 8, 2018 at 11:20pm

आदरणीय छोटेलाल सिंह जी, सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

Comment by vijay nikore on November 8, 2018 at 11:19pm

आदरणीय बृजेश जी, सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

Comment by vijay nikore on November 8, 2018 at 11:18pm

आदरणीया नीलम जी, सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

Comment by vijay nikore on November 8, 2018 at 11:17pm

आदरणीय बलराम जी, सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

Comment by vijay nikore on November 8, 2018 at 11:15pm

प्रिय भाई समर कबीर जी, अपनी अस्वस्थ्ता में भी आपका मेरी रचनायों को समय देना, और इतनी संवेदनशील भावमयी प्रतिक्रिया देना मुझको भाव-विभोर करता है। इस स्नेह के लिए मैं हॄदयतल से आपका आभारी हूँ।

Comment by narendrasinh chauhan on November 1, 2018 at 1:54pm

आदरणीय खूब सुन्दर  सृजन के लिए बहुत बधाई

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on October 31, 2018 at 1:10pm

आदरणीय निकोर साहब बहुत बेहतरीन सृजन के लिए बहुत बहुत बधाई

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 31, 2018 at 12:35pm

भावों को सार्थक शब्दों में बाँधना कमाल की कला है..आपका ये लेखन अंतस में उतरने काबिल है आदरणीय।

Comment by Neelam Upadhyaya on October 30, 2018 at 10:06am

आदरणीय विजय निकोर जी, नमस्कार।  अत्यंत  प्रभावी आलेख। बहुत बहुत बधाई ।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171 in the group चित्र से काव्य तक
"कह-मुकरी * प्रश्न नया नित जुड़ता जाए। एक नहीं वह हल कर पाए। थक-हार गया वह खेल जुआ। क्या सखि साजन?…"
3 hours ago
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171 in the group चित्र से काव्य तक
"कभी इधर है कभी उधर है भाती कभी न एक डगर है इसने कब किसकी है मानी क्या सखि साजन? नहीं जवानी __ खींच-…"
8 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Aazi Tamaam's blog post तरही ग़ज़ल: इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या
"आदरणीय तमाम जी, आपने भी सर्वथा उचित बातें कीं। मैं अवश्य ही साहित्य को और अच्छे ढंग से पढ़ने का…"
11 hours ago
Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post तरही ग़ज़ल: इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या
"आदरणीय सौरभ जी सह सम्मान मैं यह कहना चाहूँगा की आपको साहित्य को और अच्छे से पढ़ने और समझने की…"
14 hours ago
Sushil Sarna replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171 in the group चित्र से काव्य तक
"कह मुकरियाँ .... जीवन तो है अजब पहेली सपनों से ये हरदम खेली इसको कोई समझ न पाया ऐ सखि साजन? ना सखि…"
14 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171 in the group चित्र से काव्य तक
"मुकरियाँ +++++++++ (१ ) जीवन में उलझन ही उलझन। दिखता नहीं कहीं अपनापन॥ गया तभी से है सूनापन। क्या…"
19 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171 in the group चित्र से काव्य तक
"  कह मुकरियां :       (1) क्या बढ़िया सुकून मिलता था शायद  वो  मिजाज…"
22 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171 in the group चित्र से काव्य तक
"रात दिवस केवल भरमाए। सपनों में भी खूब सताए। उसके कारण पीड़ित मन। क्या सखि साजन! नहीं उलझन। सोच समझ…"
yesterday
Aazi Tamaam posted blog posts
yesterday
Chetan Prakash commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post लौटा सफ़र से आज ही, अपना ज़मीर है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई,  भाई लक्ष्मण सिंह 'मुसाफिर' साहब! हार्दिक बधाई आपको !"
Thursday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"आदरणीय मिथिलेश भाई, रचनाओं पर आपकी आमद रचनाकर्म के प्रति आश्वस्त करती है.  लिखा-कहा समीचीन और…"
Wednesday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"आदरणीय सौरभ सर, गाली की रदीफ और ये काफिया। क्या ही खूब ग़ज़ल कही है। इस शानदार प्रस्तुति हेतु…"
Tuesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service