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दुष्यंत द्वारा इस्तेमाल की गईं बह्रें और उनके उदहारण

दीवान-ए-ग़ालिब की ही तरह उदाहरणार्थ चुने गए शेरों के लिए कोशिश ये रही है कि दुष्यंत एक मात्र ग़ज़ल 'साये मे धूप' की हर ग़ज़ल से कम से कम एक शेर अवश्य हो. इस तरह ये 'साये मे धूप' का अरूज़ी वर्गीकरण भी है.  

मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ 16-रुक्नी ( बह्र-ए-मीर )

फ़अलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु अल

21        121    121     121    121     121     121     12

तख्नीक से हासिल अरकान  :

फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा

22       22      22     22      22      22     22     2 

 

मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे

मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे

 

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता

हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे

 

धीरे-धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में

इनको क्या मालूम कि आगे चलकर इनका क्या होगा

 

मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम

फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन

122        122        122       122

 

ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है

इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ

 

हज़ज मुसम्मन सालिम

मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन

1222         1222       1222        1222

  

यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ

मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

 

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते

वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा

 

कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में

वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा

 

चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें

कम-अज-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा

 

वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता

चलो अच्छा हुआ एहसास पलकों तक चला आया

 

हज़ज मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़

मफ़ऊल  मुफ़ाईलु  मुफ़ाईलु  फ़ऊलुन

221         1221      1221      122

 

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था

कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए

 

हज़ज  मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़न्नक

मफ़ऊल मुफ़ाईलुन मफ़ऊल मुफ़ाईलुन

221        1222        221       1222

 

सोचा कि तू सोचेगी ,तूने किसी शायर की
दस्तक तो सुनी थी पर दरवाज़ा नहीं खोला

 

हज़ज़ मुसद्दस सालीम

मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन

1222        1222       1222

 

तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे

इधर दो चार पत्थर फेंक दो तुम भी

 

हज़ज़ मुसद्दस महज़ूफ़

मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन

1222        1222        122

 

परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं

हवा में सनसनी घोले हुए हैं

 

ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो

क़ुरान-ओ-उपनिषद खोले हुए हैं

 

रमल मुसम्मन महज़ूफ़

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन

2122          2122         2122         212

 

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ

 

गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही

पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ

 

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

 

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

 

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

 

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

 

इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है

नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है

 

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख

घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख

 

दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़

रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख

 

ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है

रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख

 

पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं

कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं

 

आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर

आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं

 

इस अहाते के अँधेरे में धुआँ-सा भर गया

तुमने जलती लकड़ियाँ शायद बुझा कर फेंक दीं

 

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है

आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है

 

इस क़दर पाबन्दी-ए-मज़हब कि सदक़े आपके

जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है

 

रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें

इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले-बहार

 

मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं

बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार

 

इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके-जुर्म हैं

आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार

 

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर

हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार

 

रमल मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन

फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122         1122        1122        22

 

आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा

चन्द ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली

 

ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे

हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है

 

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

 

लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है

लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है

 

आप दीवार गिराने के लिए आए थे

आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है

 

ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है

ख़ामुशी शोर मचाने लगे, ये तो हद है

 

रमल मुसम्मन सालिम मजहूफ़

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ा

2122          2122        2122         2

 

सिर्फ़ आंखें ही बची हैं चँद चेहरों में

बेज़ुबां सूरत, जुबानों तक पहुंचती है

 

धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है

एक छाया सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती है

 

मैं तुम्हें छू कर जरा सा छेड़ देता हूँ

और गीली पाँखुरी से ओस झरती है

 

रमल मुसम्मन मश्कूल सालिम

फ़इलातु फ़ाइलातुन फ़इलातु फ़ाइलातुन      

1121      2122        1121      2122

 

ये ज़मीन तप रही थी ये मकान तप रहे थे

तेरा इंतज़ार था जो मैं इसी जगह रहा हूँ

 

तेरे सर पे धूप आई तो दरख़्त बन गया मैं

तेरी ज़िन्दगी में अक्सर मैं कोई वजह रहा हूँ

 

रमल मुसद्दस सालिम

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन

2122          2122        2122

 

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

 

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था

शौक से डूबे जिसे भी डूबना है

 

दोस्तो! अब मंच पर सुविधा नहीं है

आजकल नेपथ्य में संभावना है

 

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं

गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

 

ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है

एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है

 

बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं

और नदियों के किनारे घर बने हैं

 

चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर

इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं

 

मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़

मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन

221         2121     1221      212

 

हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया

हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही

 

अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था

वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया

 

मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए

ऐसा भी क्या परहेज़, ज़रा-सी तो लीजिए

 

मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है

अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और

 

लेकर उमंग संग चले थे हँसी-खुशी

पहुँचे नदी के घाट तो मेला उजड़ गया

 

नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे

होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब

 

गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में

सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये

 

उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें

चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये

 

ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब

फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा-डरा

 

वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है

माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है

 

वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू

मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है

 

मुज्तस मुसम्मन सालिम

मुस्तफ़इलुन फ़ाइलातुन मुस्तफ़इलुन फ़ाइलातुन

2212            2122         2212          2122

 

फिर धीरे धीरे यहाँ का मौसम बदलने लगा है

वातावरण सो रहा था आँख मलने लगा है

 

मुज्तस मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन

मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन

1212         1122       1212        22

 

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

 

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता

मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

 

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों

तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए

 

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं

जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं

 

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो

कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो

 

वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है

थमी हुई है वहीं उम्र आजकल, लोगो

 

वे कह रहे हैं ग़ज़ल गो नहीं रहे शायर

मैं सुन रहा हूँ हर इक सिम्त से ग़ज़ल, लोगो

 

बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा

ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए

 

ग़लत कहूँ तो मेरी आक़बत बिगड़ती है

जो सच कहूँ तो ख़ुदी बेनक़ाब हो जाए

 

बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई

सड़क पे फेंक दी तो ज़िंदगी निहाल हुई

 

ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो

तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं

 

खफ़ीफ़ मुरब्बा सालिम मख़्बून

फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन

2122          1212

 

आइये आँख मूँद लें

ये नज़ारे अजीब हैं

 

सिलसिले ख़त्म हो गए

यार अब भी रक़ीब है

 

आपने लौ छुई नहीं

आप कैसे अदीब हैं

 

उफ़ नहीं की उजड़ गए

लोग सचमुच ग़रीब हैं

 

खफ़ीफ़ मुसद्दस सालिम मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन

फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन

2122          1212       22

 

चांदनी छत पे चल रही होगी

अब अकेली टहल रही होगी

 

आज वीरान अपना घर देखा

तो कई बार झाँक कर देखा

 

हमने सोचा था जवाब आएगा

एक बेहूदा सवाल आया है

 

ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती

ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती

 

मुझको ईसा बना दिया तुमने

अब शिकायत भी की नहीं जाती

 

जिस तबाही से लोग बचते थे

वो सरे आम हो रही है अब

 

अज़मते-मुल्क इस सियासत के

हाथ नीलाम हो रही है अब

 

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ

वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ

 

एक जंगल है तेरी आँखों में

मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ

 

तू किसी रेल-सी गुज़रती है

मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ

 

मैं तुझे भूलने की कोशिश में

आज कितने क़रीब पाता हूँ

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Replies to This Discussion

आदरणीय निलेश जी 

दुष्यंत ने ये साफ़ लिखा है कि वो ये प्रयोग जान बूझ कर रहें हैं. इसका मतलब ये कि वो जानते थे कि अस्ल वज़न क्या है.ग़ज़ल के बारे में जानने के लिए उन्होंने कुछ जानकार लोगों से मदद ली थी. दुष्यंत के बयान में कोई अंतर्विरोध नहीं है. जहाँ तक मुमकिन है उन्होंने शब्द के मूल रूपों का प्रयोग किया है और जहाँ अनिवार्य था वहाँ बोलचाल के शब्दरूपों का प्रयोग किया है.

जहाँ तक अस्ल वज़्न और उसके बोलचाल के रूप का एक साथ प्रगोग करने का सवाल है यह उर्दू शायरी में भी ख़ूब हुआ है :

 

'मीर' दरिया है, सुने शेर ज़बानी उस की

अल्लाह अल्लाह रे तबियत की रवानी उस की

2122               1122        1122      22    (फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन)

इस शेर के दूसरे मिसरे में अल्लाह(221) बोलचाल के रूप अल्ला(22) के रूप में इस्तेमाल किया गया है. पहले अल्लाह को गिरा कर ‘आल’(21) के वज़न पर बाँधा गया है. दूसरे अल्लाह को अल्ला (22) के वज़न पर.  

 

ज़ाहिर कि बातिन अव्वल कि आख़िर

अल्लाह अल्लाह अल्लाह अल्लाह

 22   122         22    122       (फ़ेलुन फ़ऊलुन  फ़ेलुन फ़ऊलुन)

इस शेर में अल्लाह(221) अपने अस्ल और बोलचाल के रूप अल्ला(22) दोनों रूपों में एक साथ इस्तेमाल किया गया है.

 

मैं हर शायर का भक्त हूँ. क्रिटिकल एनालिसिस से मुझे कोई परेशानी नहीं होती लेकिन इर्रेशनल और आधारहीन एनालिसिस से ज़रूर होती है.

बैन होने या न होने से अरूज़ी गलितियों का कोई सम्बन्ध नहीं है . मैंने सिर्फ दुष्यंत के प्रभाव की प्रकृति बात की थी और यह सियासत की बात नहीं साहित्य के समाज पर प्रभाव की बात है.और ये बात इसलिए सामने रखनी पड़ी की आपने दुष्यंत के प्रभाव की हनी सिंह के प्रभाव से तुलना की थी.

मैंने पहले भी स्पष्ट लिखा है कि ग़लतियाँ किसी की अनुकरणीय नहीं होती चाहे वो कितना भी बड़ा शायर हो. लेकिन सिर्फ़ अरूज़ी ग़लतियों के आधार पर किसी शायर के पूरे अवदान को खारिज़ नहीं किया जा सकता. अगर ऐसा शायर ढूँढना हो जिसने कभी कोई ग़लती न की हो तो ये पूरी धरती खाली है. मेरी कोशिश इस श्रृंखला में सिर्फ़ शायरों के बेहतर शेरों को उनकी बह्रों की जानकारी के साथ प्रस्तुत करने की रही है उनकी गलतियाँ ढूँढने या कोई फैसला देने की नहीं.

दुष्यंत पर इस विस्तृत चर्चा के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद. 

सादर 

चल गये जो नाम उनकी क्या करें आलोचना

कमतरों के वास्ते ही फैलता कोहरा धना!

आ. भाई नीलेश जी , चर्चाओं से हम जैसों की समझ खुलती है। बहुत कुछ सीखने को मिलता है । इस चर्चा से भी मिल रहा है । समझाईस के लिए धन्यवाद ।

आदरणीय लक्ष्मण धामी बहुत ही अच्छी बात कही आपने..आपकी पंक्तियों से मुझे याद आया शब्द 'कोहरा' सही है?क्योंकि मुझे ये सही लगता है लेकिन मुझे एक से अधिक बार इस बात पे टोका गया है कि ये शब्द सही नहीं है।

जनाब बृजेश जी,फ़िरोज़ुल लुग़त की रु से "कुहरा" सहीह शब्द है ।

शुक्रिया आदरणीय समर जी..

आ. भाई अजय जी, ज्ञानवर्धक जानकारी देने के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

आदरणीय लक्ष्मण जी, हार्दिक आभार.

कुछ देर बाद हाज़िर होता हूँ,अभी कुछ काम ब्लॉग का देख लूँ ।

आदरणीय समर साहब, प्रतीक्षा रहेगी. 

जनाब अजय तिवारी जी आदाब,आज कल आप बहूर पर जो काम कर रहे हैं,वो क़ाबिल-ए-सताइश है ।

इस बार आपने 'दुष्यंत कुमार' की ग़ज़लों पर ,उनकी इस्तेमाल की हुई बहूर की जानकारी दी है,आपने बह्र के अलावा और किसी मुद्दे पर अपना क़लम नहीं चलाया,सिर्फ़ बहूर इक्तिफ़ा किया है ।

जैसा कि आपके इल्म में है कि दुष्यंत कुमार की शाइरी हमेशा आलोचना का शिकार रही है,जैसा कि जनाब निलेश जी की टिप्पणी से भी ज़ाहिर हुआ,आप ये भी बहतर जानते हैं कि दुष्यंत कहीं बेबह्र नज़र आते हैं,कहीं उनके यहाँ शिल्प और व्याकरण दोष नज़र आते हैं,आपने उनका ये शैर लिखा है :-

" क़ुरान-ओ-उपनिषद खोले हुए हैं"

इस मिसरे में सहीह शब्द "क़ुरआन"है, लेकिन उनके मिसरे में "क़ुरान" ऐसे बेशुमारे दोष उनकी शाइरी में देखे जा सकते हैं,जिनकी तरफ़ जनाब निलेश जी ने भी इशारा किया है ।

दुष्यंत कुमार ने उनके बाद की नस्ल को गुमराह किया है जो उनके नक़्श-ए-क़दम को संग-ए-मील समझ बैठी है,और उस पर चलके फ़ख़्र महसूस करती है,और सुधरने का प्रयास भी नहीं करती,ये अदब और साहित्य का बहुत बड़ा नुक़सान है, जिसकी ज़िम्मेदारी दुष्यंत कुमार के सर है ।

इतना सब् लिखने से मेरा मक़सद सिर्फ़ ये है कि 'मीर' के बाद 'ग़ालिब' और उसके बाद आपने एक लम्बी जस्त लगाई और दुष्यंत को लिया,इसके पहले भी कई नाम थे? मैं आपसे सिर्फ़ इतना मालूम करना चाहता हूँ कि इतने अहम काम की तीसरी कड़ी में "दुष्यंत कुमार" को रखने का आपका कोई ख़ास मक़सद है ,और अगर है तो वो क्या सबब है, बराह-ए-करम इस पर कुछ रौशनी डालें ।

आदरणीय समर साहब, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार. कुछ काम निपटा के लौटता हूँ.  

इन्तिज़ार रहेगा ।

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