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"चित्र से काव्य तक" प्रतियोगिता - अंक ३ में सम्मिलित सभी रचनाएँ

//श्री गणेश जी बाग़ी//

(प्रतियोगिता से अलग)
चांदनी
सी इक रात में,

चार चाँद लगे ताज में,

अहंकार के वश में ताज हुआ,

इठला कर यमुना से बोला,

रोगिणी सी क्यूँ बैठी हो,

जरा ये तो कहो,

बहुत ही महकती हो,

जाओ कुछ दूर बहो,

 

थरथराती कातर स्वर में,

धीरे से यमुना बोली,

आह !

कभी यौवना मैं भी थी,

गोपिया घंटों क्रीड़ा करती थी,

कृष्ण को गोद में खिलाती थी,

शेषनाग कर सके,

जहरीला मेरे जल को,

अब क्या कहूँ भाई मेरे,

आज कल के शेष नाथ को,

अपनी अस्मत

नहीं बचा पा रही हूँ ,

खुद की अस्तित्व की

लड़ाई लड़ रही हूँ ,

कई सालों से सत्याग्रह पर हूँ ,

कुछ सालों से अनशन पर हूँ ,

बिन खाए बिन पिये,

बिलकुल कमजोर होकर,

अपने में ही सिकुड़ सी गई हूँ ,

बहना छोड़ आँसू बहा रही हूँ ,

किन्तु भाई "बागी" मेरे,

सभी नहीं होते अन्ना हजारे,

मेरी सुध नहीं कोई लेने वाला,

दो घूँट पानी भी नहीं देने वाला,

निर्दयी ज़माने से ये यमुना,

अब बहुत ही डर रही है,

भविष्य के कृष्णों की चिंता में,

तिल तिल कर मर रही है |

भविष्य के कृष्णों की चिंता में,

तिल तिल कर मर रही है |

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कुछ हाइकू (प्रतियोगिता से अलग)

ताज महल
यमुना तट पर
खड़ा अटल

नाले सी शक्ल
प्रदूषण का घर
यमुना जल

जीवन दायी
यमुना की बहन
हैं गंगा माई

गंगा यमुना
पवित्र दो नदियाँ
अब ना ना ना

थैली विषैली
चहुँओर जो फैली
यमुना मैली

नाला या नाली
इसमें जो डाली
यमुना काली

चेत भी जाओं
काम कठिन नहीं
हाथ बढ़ाओं

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प्रस्तुत कविता ३-५-३ के विधान पर है,  इसका नामकरण मैं सुक्ष्मिता (सूक्ष्म + कविता) रखना चाहता हूँ | कृपया अपने विचारों से अवगत करावें |

(प्रतियोगिता से अलग)

(१)
यमुना
निर्मल जल
खो गया


(२)
निशानी
ताज महल
प्यार की


(३)
आगरा
खुबसूरत
घूम लो


(४)
पत्थर
हुआ क्षरण
बचालो


(५)
योजना
कागज़ पर
सफल


(६)
यमुना
जल विहार
भूल जा


(७)
ओबीओ
साहित्य चर्चा
जय हो

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//श्रीमती शारदा मोंगा "अरोमा" जी//


 

आओ कान्हा  सुधि लो आकर

कालिंदी  शुष्काई,

मरणासन है प्रिया तुम्हारी 

 दीन्ही रही ठुकराई

द्वारिका की कंचन नगरी

तोहे बहुत सुहाई

कालिंदी की  सुंदर कगरी 

काहे सुधि न आई

कान्हा लीजो  सुधि

है दुहाई!

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काला यमुना नीर था, पर नहीं था मैला

अब तो सबकुछ बदल गया, हुआ लबालब मैला,

हुआ लबालब मैला, गंदगी ने डाला डेरा,  

भ्रष्ट हुए परिवेश से हाल हुआ क्या तेरा !

आँख भर कर ताज पूछे अरी ओ सखी यमुना !

कैसे तू सहती है यह सब? कुछ तो बोलो बहना !

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प्रतियोगिता से अलग" 

कारखानों के,
कूड़े करकट,
रासायनिक पदार्थ,
अपविष्ट,
पानी गन्दा करें विषैला,
प्रदूषित करते,
लोग अशिष्ट,
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प्रतियोगिता से अलग" 

शुष्क हो रहे,
सूख रहे सब,
नदी, नाले, पोखर,
और झील,
जल वायु स्वर्ग सरीखा ,
जल था कभी,
स्वच्छ सुनील,
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मैं कृष्ण प्रिया यमुना 
तटनी तरल तरंगा 
मेरी संगिनी
प्रिय सखि गंगा
उद्गम स्थल की 
मैं शिशुबाला,
मीठे जल की  
बहे थी धारा
सखियों संग थी
खिलखिलाती
इठलाती,थी बलखाती,
अब तो में बूढ़ा गयी हूँ
बहुत ही  शुष्का गयी हूँ.
लोग समझे पगला गई हूँ .
पगली समझ वे मारें हैं
कूड़ा करकट पत्थर डालें हैं  
कारखानों का अप्विष्ट माल
रासायनिक पदार्थ, डाल 
गन्दा प्रदूषित किया विषैला, 
मेरा तन हुआ अति मैला. 
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शाहजहाँ की चाहत मुमताज की उल्फत खोती,
देखो दोस्तों पत्थर की अँखियाँ आंसू रोती,
ताजमहल ठूंठ सा खड़ा ढूडता अपना दर्पण,
अपना चेहरा किया था उसने यमुना को  अर्पण,
कहाँ गयी वह लहराती नदिया बलखाती ,
ठंडी हवा के झोंकों की मस्ती थी आती ..
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जलप्रदूषण के खतरों से,
जीव जगत को बचावो,
पानी व्यर्थ न बहावो,
पानी है जीवनदाता,
पानी की हर बूँद बचाओ.

बुंदिया पानी की अनमोल,
जीव जगत,
जीवन की डोर,
पानी की हर बूँद खेत में,
शुष्क धरा को अंकुरित कर,
हरित लहराती,
जीव जगत की प्यास बुझाती,

शुष्क हो रहे,
सूख रहे सब,
नदी, नाले, पोखर,
और झील,
जल वायु स्वर्ग सरीखा ,
जल था कभी,
स्वच्छ सुनील,

कारखानों के,
कूड़े करकट,
रासायनिक पदार्थ,
अपविष्ट,
पानी गन्दा करें विषैला,
प्रदूषित करते,
लोग अशिष्ट,

जलप्रदूषण के खतरों से,
जीव जगत को बचावो,
पानी व्यर्थ न बहावो,
पानी है जीवनदाता,
पानी की हर बूँद बचाओ.
जगह जगह नारा लगाओ-
'पानी बचाओ,'पानी बचाओ'
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1-यमुना तट पर कृष्ण कन्हैया कैसे बंसी बजाये रे
कृष्णा ढूंढे प्रिया  कालिंदी गई कहाँ किस देस रे 
काहे कृष्णा तेरी बंसुरिया  दुःख के गीत गाये रे
मन ही मन क्यों रूठी सजनी  काहे मुझे सताए रे

2-शाहजहाँ की चाहत मुमताज कि उल्फत खोती
देखो दोस्तों पत्थर की अँखियाँ आंसू रोती
ताजमहल ठूंठ सा खड़ा ढूडता अपना दर्पण
अपना चेहरा किया था उसने यमुना को  अर्पण
कहाँ गयी वह लहराती नदिया बलखाती 
ठंडी हवा के झोंकों की मस्ती थी आती
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कारो कन्हैया, कारी ही यमुना, 
कारो ही यमुना को नीर
कन्हैया! मैलो न था पर नीर
री यमुना! कैसे हुआ यह? 
भई बहुत है  पीर!
जब जब पीर परी  भगतन पर
जाग उठो ब्रजबीर,
आओ कन्हैया! देर न करो तुम,
कछु तो करो कि स्वच्छ होवे तव नीर,
मिट जावेगी पीर,
री यमुना मिट जावेगी पीर.
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बहुत हो चुका  अब तो  बस   कीजिये,
भारत था महान ऐसा याद कीजिये.
देश हो महान ऐसा काज कीजिये.
व्यवस्थित विधा का विधान कीजिये

जहाँ से मिले  सीख उसे ग्रहण कीजिये.
पाश्चात्य देशों ने  था सीखा,  भारत से
अब  उनसे भी सीख कुछ  ग्रहण कीजिये.
वहां न कूड़ा  सडक पर न ही  नदी में,
'स्वच्छ जल  नल से भर गिलास पीजिये',
जहाँ से मिले  सीख उसे ग्रहण कीजिये,
व्यवस्थिता सर्वत्र यहाँ सवाल न गंदगी का .
भारत में भी हो सके है ऐसा विधान कीजिये,
सुव्यवस्थ विधा बरकरार कीजिये,
जहाँ से मिले  ज्ञान उसे ग्रहण कीजिये.
लालच छोड़ अब सोचो देश के लिए,

भारत था महान ऐसा याद कीजिये,
देश हो पुन:महान ऐसा काज कीजिये.

अनंत असीम अम्बर ध्यान दीजिये, 

चहुँओर दृष्टी आपकी एक काम कीजिए,

सुव्यवस्थित, देश के उधार के लिए 

एकत्रित जनसंग का आव्हान कीजिये 

निर्धारित कार्यक्रम को रूप दीजिये

विधा विधान आरंभ कर स्वरूप दीजिये

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मोहे कान्हा की सुधि आई. 
कातर यमुना  करे दुहाई.
आन मिलो तुम बांसुरी बजैया!
आन मिलो  ब्रजराई!....मोहे कान्हा की सुधि आई .
कालिंदी की खोज लो प्रीतम!
यह दुर्दशा सही न जाई. 
कहाँ गई तोरी प्रीत  भक्तन  को?
कहाँ गई चतुराई?...मोहे कान्हा की सुधि आई...
जब जब पीर परी  भक्तन पर,
तुमने चीर बढाई.
कान्हा! काहें देर लगाई?
अब तो चले आओ ब्रजराई.
मोहे कान्हा की सुधि आई.
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तोड़ चरम सीमा का बांध,
बढ़ रहा गंदगी का सैलाब,  
फेंक अपविष्ट, प्रदूषित मैला
पावन जल हुआ विषैला,
कूड़े-करकट, रासायनिक पदार्थ,
चली गयी यमुना की आब,
यमुना तट बन गया मरघट.
चलेगा बोलो ऐसा  कब तक
अब तो यमुना बन गयी लाश
दफन करोगे उसे किस मरघट ?
सोचा है क्या ? कुछ सोचो?
सोचा नहीं है तो अब तो सोचो.
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ताज का यमुना से यों बतियाना
गुटर-गूं करते कबूतर सुन अफसाना
उनकी प्रेम कहानी के थे वे ही साखी,
उड़ते, सुनते, करते, गुटर-गूं वे पांखी,
दुःख भरी, प्रेम-कहानी सुनकर रोते थे वे,
गूं- गुटर, गुटर गूं, दुनिया को सुनाते थे वे.
जब यमुना कलकल करती गाया करती थी,
झूम झूमकर इठलाती बल खाया करती थी,
फेनिल दुग्ध झाग उगल मुस्काया करती थी,
तब ताज आकार्षित हो डोरे डाला करता था,
उसके लावण्य पर मोहित हो उसपर मरता था,
वह पार्दार्शिनी श्यामा बनी थी उसका दर्पण,
मोहित लोलुप ताज ने था किया समर्पण,
चंचला उससे हंस कर करती थी ठिठोली,
"पाषाण हृदयी" काट चिकोटी मारे थी बोली,.
यों कबूतर गुटर-गूं करते जाते थे,
उनकी दयनीय दशा देख रोते जाते थे.
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गंदगी का नग्न नाच सर्वत्र दीखा

मनुष्यता लुप्त हो, क्या यही है सीखा?

सर्वत्र स्वच्छता रखना है अति आवश्यक, 

'अथवा सांस लेना दूबर' यह न सीखा.!

अपना मुख सुब-शाम नित्य धोते हो ,

वातावरण भी साफ़ रखना, क्यों न सीखा?

यों क्यों वातावरण में विष घोला?

बातों  में तो खूब अव्वल, हो बडबोला!

वातावरण हो स्वच्छ है अति आवश्यक, 

रहो साफ़, सब ओर सफाई, क्यों न सीखा?

ईश ने वसुंधरा साफ़ सुंदर है सजाई ,

ईश-प्रदत्त धरोहर साफ़ रखो, मेरे भाई?

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ताज के ही तनिक समीप पर,
यमुना थी बहती अवराजति.
 
लहरें लोल कलोल किलकतीं थीं,
खिलखिला रहीं थी इठला रहीं. 
 
ताज देख रहा था मुस्कुरा, 
उसकी रजत स्वर्णिम लहरियां.
 
स्फुटित दिव्य लहरियों की प्रभा, 
ताज था अनुरंजित हो रहा.
 
समय शांत विश्रांत व्यतीत था,
प्रेम स्नेह का जलता दीप था.
 
बह गयी उस काल इक गन्दी हवा,
भयंकर छा गयी वहां पर कालिमा.
 
अशिष्ट लोग  लगे वहां फैंकने,  
गंदगी, कूड़ा, कचरा सब जगह. 
 
समय के फेर ने सब पलटा  दिया
बंद हुआ न ऐसा सिलसिला.

 

दुखित यमुना सोच के शुष्का गयी,

ताज भी दुखरंजित था मलिन . 

 

अब वहां पर आब न थी मगर,

गन्दगी-का सर्वत्र साम्राज्य था

वह लहराती हहराती नदिया,

खिल्खालती बलखाती नदिया,

अंकुरित करती खेतों को,

आह! करदी उसकी दशा क्या,

हम अशिष्ट इंसानों ने.

ताज सौंदर्य का उदाहरण जो था 

फीका कर दिया हम दानवों ने.

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//श्री अम्बरीष श्रीवास्तव जी// 

(प्रतियोगिता से अलग)

जमुना काली हो चली, आज बड़ा अंधेर.
दूर ताज भी रो रहा, देख समय का फेर.
देख समय का फेर, आ मिले इसमें नाले.
भ्रष्ट हुआ परिवेश, गन्दगी डेरा डाले.
अम्बरीष क्यों आज, हुआ कद अपना अदना.
लाल किले से दूर, दुखी अब देखो जमुना..
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(प्रतियोगिता से अलग)

जब भी अम्बर- ईश वह, 'सलिल' करेगा वृष्टि .
सब कचरा बह जायेगा, शेष रहेगी दृष्टि.
शेष रहेगी दृष्टि, जिसे है वसुधा प्यारी
परहित में जो लिप्त, रमेगा वह संसारी
अम्बरीश कविराय, रहेगा पानी तब भी.
करते रहें प्रयत्न, सफलता पायें जब भी..

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प्रतियोगिता से अलग "

"कुछ हाइकू "

(१)
रोती यमुना
बढ़ता प्रदूषण
चिंतित ताज

(२)
घटता पानी
सीमित हरियाली
हँसे गंदगी

(३)
भ्रष्ट मानव
खेलता प्रकृति से
स्वार्थ जो अँधा

(४)
स्वार्थी इंसान
जीवन नदियों से
प्रतिफल ये

(५)
मरती नदी
काला जो पानी
आँख में बाल
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"प्रतियोगिता से अलग"

जमुना किनारे आज, गंदगी के ढेर-ढेर.
पाट-पाट कूड़ा यहाँ, यों ना बिखराइये.

काला-काला जल हुआ, घिन लागे देख-देख,
गंदा-गंदा पानी यहाँ, यों ही ना गिराइये.

स्लज का हो ट्रीटमेंट, वाटर का ट्रीटमेंट,
शर्म से हो पानी-पानी विधि अपनाइये.

मंदिर है मैला-मैला ताज जिसे आवे लाज-
झूठा लिखा इतिहास अब तो लजाइये..

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"प्रतियोगिता से अलग"

यमुना काली हो चली, कल-कल नहीं प्रवाह.
कूड़ा-कचरा दुर्दशा, मुख से निकले आह..

कभी नदी थी स्वच्छ यह, निर्मल था तब नीर.
मानव कैसा स्वार्थी, दूषित किया शरीर..

उधर देखिये रो रहा, बहुत दुखी है ताज.
क्षरण आज भी हो रहा, बना प्रदूषण खाज..

छिपा लिया मुँह शर्म से, लाल किले के बाद
मेरे कारण हो चुकी, यमुना भी बर्बाद

नासमझी का कर्म यह जगत रहा है भोग.
भूजल तक दूषित करे, अलबेला उद्योग ..

नाली-नाले आ मिले, मिले सभी अपशिष्ट..
शोधन को अपनाइए तभी रहेंगे शिष्ट..

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//श्री रवि कुमार गुरु जी//


 

सामने खड़ा हैं ताज ,

हैं दे रहा आवाज,
मेरी खूबसूरती को बचाओ ,
मेरी प्यारी यमुना से ,
इस गंदगी को हटाओ ,
सुना हूँ लाखो खर्च हुए ,
मगर दिखता नहीं ,
अरे हा ये पैसा तो ,
काली कमाई वाले खा गए .
दोस्तों आओ उन पर करे नाज ,
सामने खड़ा हैं ताज ,
हैं दे रहा आवाज ,
मैं कोई गन्दा नाला नहीं हूँ ,
कि इस तरह देख रहे हो,
मैं वही हूँ ,
जिसमे गोपिया नहाया करती थी ,
जहाँ श्याम मुरली बजाया करते थे ,
जिसके जल में,
हरदम निर्मलता रहती थी,
हा हा मैं वही हूँ ,
जिसके किनारे पे ताज हैं,
आज मुझे खुद पे रोना आ रहा हैं,
लगता हैं आज मैं,
दिल्ली के चेहरा पे,
बदनुमा दाग हूँ,
मुझे अब बचा लो,
मेरे नाम पर उठाये पैसे को,
देश हित में लगा दो,
कि मैं फिर किसी से ना कहू,
मैं कोई गन्दा नाला नहीं हूँ,
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आज का समाचार ,
मन को खुश किया ,
बारिश आकर ,
कचरा ले गई ,
मगर ये साथ में ,
हम गरीबो की ,
झुग्गी बहा ले गई ,
हुए बेघर मगर ,
खुशी इस बात की हैं ,
साफ जमुना दिखे,
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//श्रीमती वंदना गुप्ता जी//


ये कूड़े ये कचरे ये पालिथिन की यमुना
प्रदूषण से बेहाल होती ये यमुना
ये यमुना अगर मिल भी जाये तो क्या है
ये यमुना अगर मिल भी जाये तो क्या है

ये ताज  के  किनारे बहती ये यमुना
ताज  का कभी आईना बनती ये यमुना
आज उस के माथे का कलंक बनती ये यमुना
ये यमुना अगर मिल भी जाये तो क्या है
ये यमुना अगर मिल भी जाये तो क्या है

 गन्दा नाला बन बहती  ये यमुना
सीवर के गंदे पानी को सहती ये यमुना
स्वच्छ जल को तरसती ये यमुना
ये यमुना अगर मिल भी जाये तो क्या है
ये यमुना अगर मिल भी जाये तो क्या है


मिटा दो मिटा दो मिटा दो इस यमुना को
बदनुमा दाग का पूजन मिटा दो
कैसा ये पूजन किसका करें पूजन
आज बनी है गंदगी का ढेर ये यमुना
ये यमुना अगर मिल भी जाये तो क्या है
या यमुना अगर मिल भी जाये तो क्या है

कभी कृष्ण का क्रीडा स्थल बनी थी
गोपियों संग उसने लीला करी थी
महारास की साक्षी बनी थी
कालिया की एक भी ना चली थी
मगर आज देखो कैसे जली है
अपनों के हाथों बर्बाद हुई है
ये यमुना अगर मिल भी जाये तो क्या है
ये यमुना अगर मिल भी जाये तो क्या है

शाहजहाँ के सपनो पर तुषारापात करती ये यमुना
मुमताज़ का शाही बिछौना बनती ये यमुना
अगर शाहजहाँ के ख्वाब से मिट भी जाये तो क्या है
ये यमुना अगर मिल भी जाये तो क्या है
ये यमुना अगर मिल भी जाये तो क्या है

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आओ झूमें गायें
यमुना को
प्रदूषण मुक्त बनाएँ

करें आह्वान ऐसा निर्मल हो जाये
यमुना का जल जिसमे दिखे
मन दर्पण फिर ना आँख चुराएं
आओ झूमें गायें
यमुना को प्रदूषण मुक्त बनाएँ

कूड़े कचरे को ठिकाने लगायें
कैमिकल को ना यमुना में बहाएं
जीव जंतुओं को ना हानि पहुंचाएं
आप झूमें गायें
यमुना को प्रदूषण मुक्त बनाएँ

करें हम पर्यावरण की रक्षा
ताज का सिर करें गर्व से ऊंचा
ऐसा इक नया जहाँ बनाएँ
आओ झूमे गायें
यमुना को प्रदूषण मुक्त बनाएँ

इक बार फिर से कान्हा को बुलाएं
महारास की वो बंसी बजाएं
यमुना का पूर्व स्वरुप पाए
उसकी मुरलिया भी रुक ना पाए
आओ झूमे गायें
यमुना को प्रदूषण मुक्त बनाएँ

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//आचार्य संजीव सलिल जी//

 

बहुत कुछ बाकी अभी है, मत हों आप निराश.

उगता है सूरज तभी,जब हो उषा हताश.

किरण आशा की कई हैं,जो जलती दीप.

जैसे मोती पालती ,निज गर्भ में चुप सीप.

 

आइये देखें झलक,है जबलपुर की बात

शहर बावन ताल का,इतिहास में विख्यात..

पुर गए कुछ आज लेकिन,जुटे हैं फिर लोग.

अब अधिक पुरने न देंगे,मिटाना है रोग.

रोज आते लोग,खुद ही उठाते कचरा.

नीर में या तीर पर,जब जो मिला बिखरा.

भास्कर ने एक,दूजा पत्रिका ने गोद

लिया है तालाब,जनगण को मिला आमोद.

*   

झलक देखें दूसरी,यह नर्मदा का तीर.

गन्दगी है यहाँ भी,भक्तों को है यह पीर.

नहाते हैं भक्त ही,धो रहे कपड़े भी.

चढ़ाते हैं फूल-दीपक,करें झगड़े भी. 

बैठकें की, बात की,समझाइशें भी दीं.

चित्र-कविता पाठकर,नुमाइशें भी की.

अंतत: कुछ असर,हमको दिख रहा है आज.

जो चढ़ाते फूल थे वे ,लाज करते आज.

संत, नेता, स्त्रियाँ भी,करें कचरा दूर.

ज्यों बढ़ाकर हाथ आगे,बढ़ रहा हो सूर.

इसलिए कहता: बहुत कुछ अभी भी है शेष

आप लें संकल्प,बदलेगा तभी परिवेश.

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प्रतियोगिता से अलग:
नवगीत:
समय-समय का फेर है...
संजीव 'सलिल'
*
समय-समय का फेर है,समय-समय की बात.
जो है लल्ला आज वह- कल हो जाता तात.....
*
जमुना जल कलकल बहा, रची किनारे रास.
कुसुम कदम्बी कहाँ हैं? पूछे ब्रज पा त्रास..
रूप अरूप कुरूप क्यों? कूड़ा करकट घास.
पानी-पानी हो गयी प्रकृति मौन उदास..
पानी बचा न आँख में- दुर्मन मानव गात.
समय-समय का फेर है, समय-समय की बात.....
*
जो था तेजो महालय, शिव मंदिर विख्यात.
सत्ता के षड्यंत्र में-बना कब्र कुख्यात ..
पाषाणों में पड़ गए,थे तब जैसे प्राण.
मंदिर से मकबरा बन अब रोते निष्प्राण..
सत-शिव-सुंदर तज 'सलिल'-पूनम 'मावस रात.
समय-समय का फेर है,समय-समय की बात.....
*
घटा जरूरत करो, कुछ कचरे का उपयोग.
वर्ना लीलेगा तुम्हें बनकर घातक रोग..
सलिला को गहरा करो, 'सलिल' बहे निर्बाध.
कब्र पुन:मंदिर बने श्रृद्धा रहे अगाध.
नहीं झूठ के हाथ हो, कभी सत्य की मात.
समय-समय का फेर है, समय-समय की बात.....
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प्रतियोगिता हेतु नहीं
एक कुण्डली:
संजीव 'सलिल'
*
पानी बिन यमुना दुखी, लज्जित देखे ताज.
सत को तजकर झूठ को, पूजे सकल समाज..
पूजे सकल समाज, गंदगी मन में ज्यादा.
समय-शाह को, शह देता है मानव प्यादा..
कहे 'सलिल' कविराय, न मानव कर नादानी.
सारा जीवन व्यर्थ, न हो यदि बाकी पानी..

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प्रतियोगिता के लिए नहीं:
हुआ क्यों मानव बहरा?
कूड़ा करकट फेंक, दोष औरों पर थोपें,
काट रहे नित पेड़,  न लेकिन कोई रोपें..
रोता नीला नभ देखे, जब-जब निज चेहरा.
सुने न करुण पुकार, हुआ क्यों मानव बहरा?.
कलकल नाद हुआ गुम, लहरें नृत्य न करतीं.
कछुए रहे न शेष, मीन बिन मारें मरतीं..
कौन करे स्नान?, न श्रद्धा- घृणा उपजती.
नदियों को उजाड़कर मानव बस्ती बसती..
लाज, हया, ना शर्म, मरा आँखों का पानी.
तरसेगा पानी को, भर आँखों में पानी..
सुधर मनुज वर्ना तरसेगी भावी पीढ़ी.
कब्र बनेगी धरा, न पाए देहरी-सीढ़ी..
शेष न होगी तेरी कोई यहाँ कहानी.
पानी-पानी हो, तज दे अब तो नादानी..
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//श्री इमरान खान जी//

 

जमना! बस कहने को ही, तू पावन कहलाती है,
वरना तेरा मान किसे, तू रोज़ मलिन हो जाती है.


जमना यहाँ नहीं होती, कौन यहाँ फिर बस जाता,
रमणीय गढ़-गरगज, निर्माण कौन फिर करवाता.


निर्लज्ज यहाँ सरकारें हैं, तेरा भान करेगा कौन,
मूक बधिर इस बस्ती में तेरा रुदन सुनेगा कौन.


क्या इसीलिए राजा का, तुझपे मन ललचाया था,
क्या इसीलिए तेरे अंगना, 'ताज महल' बनवाया था,


व्याकुल समय नयन से आज, अश्रुमाला बहती है,
निर्मल कोमल नदी नहीं, तू नाला बनकर बहती है,


मल करकट और सडन से पूजन की तैयारी है,
हे! गंगा की सगी बहिन भक्त तेरे व्यापारी हैं.


हे! पुत्रों बहुत हुआ बस और नहीं अट्टहास करो,
जमना को जीवित कर जल जीवन अविनाश करो.

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"सदा ए जमना "
खुशियों को चार सू यहाँ बिखरा देखो,
ये ताज है फिरदौस का टुकड़ा देखो.


दोज़ख भी बस चंद क़दम ही है यहाँ
मैं बैठी हूँ यहाँ तुम मेरा चेहरा देखो.


आलूदगी ए शहर से मुझे लाद दिया,
बरबादियों का है यहाँ पहरा देखो.


लाश हूँ मेरी मिटटी का इंतजाम करो,
सीना ख़ाक से ढक दो ये मेरा देखो.

 

मेरे नाम की तारीख में ही शान रहे,
हाल हस्ती से मिटा दो ये मेरा देखो.

----------------------------------------------------

//योगराज प्रभाकर//


 

(प्रतियोगिता से अलग)
नज़्म - दर्द-ए-ताज

तेरी हस्ती से ही हस्ती है मेरी
तेरी मौजूदगी ही शान मेरी, 
भले घुटती है तेरी सांस लेकिन, 
निकलती लग रही है जान मेरी !

तेरे आँचल पे उभरे दाग जितने
मेरी रूह पे वो छाले हो रहे  हैं,
तेरे जल की सियाही से परीशाँ ,
मेरे
पत्थर भी काले हो रहे हैं !

मैं तन्हा था भले सदियों से लेकिन,
उदासी से सदा तूने उबारा !
भला अहसान कैसे भूल पाऊँ
तेरी लहरों का वो मुझको सहारा !

मुझे जबसे बनाया शाहजहाँ ने, 
मैं इक लफ्ज़-ए-मोहब्बत हो गया हूँ
ये बरकत है तेरी मौजूदगी की, 
इमारत से इबारत हो गया हो गया हूँ

बड़ा मुश्किल ऐ यमुना भूल पाना  
बिताया वक़्त जो शाना बशाना,
वो तेरा गोपियों की बात करना, 
कन्हेया के मुझे किस्से सुनाना !

अगर मैं भी कोई इंसान होता,
तेरे चरणों को मैं खुद रोज़ धोता,
सदा रहता वो धवल दूधिया सा 
तेरा आँचल कभी मैला न होता !

---------------------------------------------------

(प्रतियोगिता से अलग)

यमुना की जिंदगी को, हर हाल में बचाना, 
कल भी ज़रूरी था, ये आज भी ज़रूरी है !

माना कि धर्म अपना, नदियों को पूजना है, 
उन्हें साफ़ रखने का, काज भी ज़रूरी है  ! 

रूठी हुई नदियाँ जो, स्वर्ग से उतार लाए, 
भागीरथ जैसा कोई, आज भी ज़रूरी है  !

कालिंदी है कान्हा प्रिया, इसे तो बचाना होगा,
प्रेम की निशानी है तो, ताज भी ज़रूरी है !

----------------------------------------------------

(प्रतियोगिता से अलग)

कुछ दोहे

ताज नाम का ताज है, यमुना जी सरताज,
इक राजा का शौक है, इक भारत की लाज !

काश हमारे देश में, ऐसा हो कानून
नदियों का दम घोटना, माना जाए खून !

पूजा के सामान से, नदियाँ तोड़ें साँस
आँखों वाले देश का, अँधा है विश्वास !

अरबों डालर फूंकती, लेने को हथियार,
नदियों के हालात को, भूली ये सरकार  !  

नदियों से जो प्रेम है, छोडो सबकी आस,
आओ भारत वासियों, खुद ही करें प्रयास !
---------------------------------------------------

 

//श्री आलोक सीतापुरी जी//

 

घनाक्षरी :

कूड़ा-कचड़ा कबाड़ नदियों में डाल डाल,
भाग्य रेखा भारत की हमने उजाड़ी है| 
विश्व का अजूबा ताज उसको भी खतरा है,
जलवायु इतनी प्रदूषित हमारी है|
गंगा वह गंगा नहिं जमुना न जमुना है,
पूजनीया नदियों की सूरत बिगाड़ी हैं|
चेते नहीं अब भी हो जल को किया विषाक्त|
दुनिया कहेगी देश भारत अनाड़ी है ||
------------------------------
---------------------------

कुण्डली :

कूड़ा कचरा केमिकल, पालीथिन मल-मूत्र,
पानी गन्दा कर रहे, रचे प्रदूषण सूत्र |
रचे प्रदूषण सूत्र, दुखी यमुना का पानी,
दुनिया में मशहूर, ताज की प्रेम कहानी|
कहें सुकवि आलोक नाम पुरखों का बूड़ा|
रहे डालते अगर नदी में कचरा कूड़ा||

--------------------------------------------------------------

(१)
गन्दगी का ये साम्राज्य फैला हुआ,
गंगा-जमुना का मृदु जल कसैला हुआ,
कारखानों मिलों की ये आलूदगी-
आब दरिया का जिससे विषैला हुआ ||
(२)
कारखानों के कचडों से पूछें जवाब,
गंदगी आब ए जमुना में फ़ैली है क्यों,
रूहे शाहेजहाँ को भी होगा गिला-
आगरे की फिजां आज मैली है क्यों ||

---------------------------------------------

जल में मल मत डालिए, जन-गण ले यह मंत्र.
सभी मिलों में हों लगे, मल शोधक संयंत्र ..

दूषित यह परिवेश है यदि हम सकें सुधार.
होगा प्राणी-मात्र में नव जीवन संचार ..

शहर आगरे में हुआ अटल प्रदूषण राज.
जनता जागे तब करे निर्मल यमुना ताज ..

शाहजहाँ मुमताज को पुनि समाधि दी जाय.
स्थापित शिवलिंग कर अब पूजा की जाय..

-----------------------------------------------------

//श्री धर्मेन्द्र शर्मा (धरम)//

अरे ओ ताज तेरी परछाई में जीने का गम उठा रहे हैं,
गंदगी जी रहे हैं, और गंदगी ही खा रहे हैं
कारखाने की कालिख से तुझे परहेज़ नहीं,
हम खोफज़दा से डर डर के चूल्हा जला रहे हैं,
तेरी खूबसूरती को देखने तो उमड़ती है दुनिया,
हम और नदी ऐसी भीड़ के अत्याचार को निभा रहे हैं,
ख़ूबसूरती भी तुलना की अधीन होगी मालूम ना था
हमारे वजूद से ही होगा नुमाया तेरा वजूद,
कैसे फालतू के ख्याल ज़हन में आ रहे हैं?
कविगण लगे हैं मानसिक युद्ध करने में अब,
ये मलिन बस्ती तो नहीं जिसे हम यमुना कहकर दिखा रहे हैं?

------------------------------------------------------------

प्रतियोगिता से बाहर

प्रदूषण के बारूद को बोया यमुना बीच,

रोया कान्हा फूट कर दोनों आँखें भींच,

सडती जाती संस्कृति, पर है ताज महान,

जीवित थी जो एक नदी, हुई ठेठ मसान,

हुई ठेठ मसान कि गिद्ध अब मंडराते हैं,

कहने को हम देश 'नदी' का कहलाते हैं,

मूँद आँख और मार आत्मा को बैठा है,

'औद्योगिक' राष्ट्र आज खुद को कहता है,

ताज को छोड़ो, सैंकड़ों बन जायेंगे,

मर जायेगी माँ, कहाँ से फिर लायेंगे?

----------------------------------------------------

//श्री संजय राजेन्द्रप्रसाद यादव जी//

 

अपना इतिहास आज सिसक के रो रहा है
भ्रष्टाचार में लिप्त नेता सो रहा है !

ताज प्रेम प्रीत की है अमिट निशानी
आते देखने जिसको दूर देश के सैलानी !

आज ताज इर्द-गिर्द जो देख रहा है
अपनी सुन्दरता को वो भी कोस रहा है !

बहती थी कभी जमुना में शीतल अमृत धारा
बलखाती मनोरम रूप थी जिसकी जल धारा !

संग मोहन बासुरी धुन पे कभी नाची जहां राधा
कर वीराना प्रेम जगह कहाँ गए वो कान्हा !

आज उफनती इठलाती कुछ यूं यमुना शांत हुई
घोर कलयुगी अमानुष की पहचान हुई !

है नहीं परवाह बस यूँ ही भाषण देते
मक्कार मतलबी नेता खुद की रोटियाँ सेंकते !

------------------------------------------------------

बदल गया है आज ज़माना,

बदला है यमुना का पानी !

जहां बहे कभी झोके शीतलता के,

संग लिए खुश्बू रानी !

स्वर्णिम रेत में बहे जो यमुना,

बदबू वहां है, कीचड़ पानी !

ताज हो या शिवालय,

पर शान है वो हिन्दुस्तानी !

------------------------------------------------

"महिमा यमुना जल की****

// परखने जटिला-कुटिला की पतिव्रता कृष्ण ने अस्वस्थ होने को है ठानी,
योगमाया से प्रकट हो पूर्णिमा बोली है अदभुत बानी !

 

सहस्त्र छिद्र घड़े में ओ लाये यमुना जल जो पतिव्रता है नारी,
घबराई है मईया यशोदा जटिला-कुटिला को है बुलवाई !
यमुना जल ले आओ तुम सहस्त्र छिद्र घडा है पकडाई,
हर्षित मन यमुना जल भरने चल पड़ी दोनों इठलाई !

यमुना जल भर सहस्त्र छिद्र घड़े में चली है दोनों बारी-बारी,
नहीं बचा एक बूंद घड़े में दोनों गयी है भाग पराई !
परामर्श ले योगमाया से माँ राधिका से गुहार लगाई,
सहस्त्र छिद्र घड़े यमुना जल राधिका जी ले है आई !

पूर्णिमा जी पवित्र यमुना जल से जगपति का अभिषेक किया,
अस्वस्थ पड़े राधे प्रियवर, को योगमाया ने स्वस्थ किया !
सिध्द हो गयी तब राधिका, व्रजवासियो ने प्रसंशा किया,
मुस्कुरा उठे जग स्वामी राधिका जी, को गले लगा लिया !

तभी से यमुना जल में सजाने लगी फूलो की धारा,
आज यमुना जल भरी पड़ी है कूड़ा कचरे से यारा !........

-------------------------------------------------------

//श्री सुरिंदर रत्ती जी//

 

"यमुना"

तुम वही हो लगता नहीं,
रूप-रंग, गंध कुछ बचा नहीं 
 
निर्मल, मीठे नीर का,
कहीं कुछ पता नहीं 
 
आचमन करूँ तो कैसे,
दूषित पानी ज़हर पचता नहीं 
 
गंगा की तरह यमुना मैली हुई,
दाग लगे  हैं कोई तकता नहीं 
 
पूजा, अर्चना, श्रद्धा में,
मन किसी का लगता नहीं 
 
लाचारी, मज़बूरी क्या है,
गन्दगी कोई साफ करता नहीं 
 
पानी कम है तो क्या हुआ, 
इतने पानी में डूब मरता नहीं 
 
मुफ्त अमृत (पानी) को ठुकराते रहे,
शराब से पेट भरता नहीं 
 
यमुना मरे या जिए,
अपना कुछ घटता नहीं 
 
तमाशा देखो बस "रत्ती" तुम,
यहाँ ज़ोर किसी का चलता नहीं
-----------------------------------------
//श्री सुरेश कुमार सहगल जी//

यमुना तुम थकना मत,बहना
पथ में होंगें कंटक ,रोड़े 
तुम उनको संग ले कर बहना 
यमुना तुम थकना मत,बहना 
यमुना तू सरिता हे जल की 
 अविरल तुम  बहती जाना 
 यमुना तू दर्पण हे थल की 
 सब कुछ उज्जवल करती जाना 
शुभ्र, मलिन,पाषाण पुष्प 
सबको पावन करती जाना 
ताज भी होंगे खंडहर भी 
सबका दर्पण बनती जाना
यमुना तुम थकना मत.बहना
--------------------------------------
//श्री अरुण कुमार पांडे "अभिनव" जी//

प्रतियोगिता से अलग-
कविता -..और हम खुश हैं  !
 
सुना था चिराग तले  अँधेरा होता है
आज देखा ताज तले भी होता है उसके अंधेरों  का साम्राज्य
झक्क  सफ़ेद संगमरमर  भी
दूर नहीं रहा हमारे कृत्यों  के कलुष से
और हम सगर्व बेंच रहे हैं धरोहरों के दिखावे के टिकट
कमा  रहे हैं डॉलर
भूलकर अपना अतीत और उसको संरक्षित करने के अपने दायित्व को 
हम खुश है की नदियों को हमने बना दिया है  नाला
हवा तक अब नहीं रही सांस लेने के लायक
और ज़मीन पर हमने उगा लिए हैं कंक्रीट के जंगल
हम खुश हैं की हमने मान लिया है की हमारे हक में है शाहजहाँ और -अकबर की विरासत
हम खुश हैं की लाल किला अब नहीं रहा लाल , ताज धुंए से ढँक गया -है
क़ुतुब भी शर्म से झुक सा गया है कुछ
और हम खुश हैं की हम बेंच रहे हैं अपने धरोहरों के टिकट कमा  रहे हैं डॉलर !!
------------------------------------------------------------
------
प्रतियोगिता से अलग-
{1}
 
वाह ताज
कहाँ आज
प्रदूषण की गिरी गाज !!
 
{2}
 
गंगा जमुना
कृष्ण कावेरी
नालियों की ढेरी !!
 
{3}
 
उफ़ ये जीवन मरण
धरोहरों का ऐसा
इतना क्षरण !!
 
{4}
 
विकास का पहिया
कौन जाने
सुधरेगा कहिया !
 
{5}
 
ओ बी ओ का ये प्रयास
साहित्य का होगा विकास
मन में जगी है आस !!
----------------------------------

//श्री दुष्यंत सेवक जी//

ताज की व्यथा
वो कल कल बहता निर्मल जल
वो हरीतिमा, वो नभ उज्ज्वल
वो सुरभित कूल किनारे थे
अद्भुत रमणीक नज़ारे थे
यह मनोहारी दृश्य निहारकर
अपनी प्रियतमा को विचार कर
एक शहंशाह ने यह स्थान चुना
मेरे निर्माण का सपना बुना
मुमताज़ महल की यादगार
इस रूप लिया मैने आकार
तब मिला मुझे तुम्हारा संग
तुम थी नीलाभ, मैं श्वेत रंग
किंतु मनुज ने क्या हश्र किया
ममता का ये कैसा फल दिया
क्या थे हम और कैसे ये दुर्दिन
मैं हुआ श्याम तुम हुई मलिन
कैसा ये क्रूर परिहास है
अपनी सुंदरता अब इतिहास है
हा! यमुना बड़ा ही क्षोभ है
ले डूबा हमे मानव लोभ है
----------------------------------------
//श्री नेमीचंद पूनिया "चन्दन" जी//

जहां
श्री महर्षि संदीप का
आश्रम था
बांसुरियां की धुन सुनते ही
राधा गोपियां
कन्हैया से मिलने
दौडी चली आती थी
गोपाल बाल-ग्वाल संग
नाच-गान
क्रीडा
किया करते थे
जिसके तट पर
शाहजहाँ ने बेगम
मुमताज की याद में
ताजमहल बनवाया
आज उसी यमुना तट
त्रिवेणी की
बदहाली देखकर
चित उदास और मन
अधीर हो जाता हैं
नयनों में नीर छलक आता हैं
मगर सुनता नहीं कोई पीर
सब के सब हैं बेपीर
बचपन से लेकर बुढापे तक
माँ को मैला ढोते देख
दिल जार-जार रोता हैं
इसकी बदहाली को देख
हरेक देशवासी
शर्मसार हो जाता हैं।
---------------------------------------
 //श्री बृज भूषण चौबे जी //

सुनाई दे रहीं बांते, दिखाई दे रहा मंजर ,
मानवता खुद ही घोपती अपने पेट मे खंजर |

 

क्या खुद जीने का हमारा ये तरीका है ?
प्रकृत से दुश्मनी करना हमने किस से सिखा है ?

 

हम खुद के हांथो से नदी का स्तर गिरा करके ,
और हंस रहे है हम अपना ऊँचा घर बना करके |

 

हमारी इन करतूतों पे नदी भी खूब हंसती है ,
करूंगी हाल क्या ?सोच क़र आंखे तरसती है |

 

पाकर इन्शान का दर्जा अभिमान करते हो ,
इस स्वर्ग स़ी धरती को , शमशान करते हो |

 

आएगा मौसम बरसात का तो खूब डराउंगी ,
देखोगे अंजाम कर्मो का मै जब लाशें बिछाउंगी |

 

अगर इस कदर चारो तरफ तुम घर बनायोगे,
रहेगी नाव ना नदी ना कभी पार जाओगे |

------------------------------------------------

//श्री दीपक शर्मा 'कुल्लुवी जी;//

माया राज

यह ताज है सरताज है
हिन्दोस्तान की लाज है
इस गँदगी पे न जाओ यारो
यह तो माया राज है......
हम खुद से शर्मसार हैं
दीपक 'कुल्लुवी' लाचार है
आने वाली महाप्रलय का
लगता यह आगाज़ है ......
----------------------------------------
 
//श्री आशीष यादव जी//

इस कलियुग का मानव भी क्या, खूब निभाता फ़र्ज़|
जिस से इसको जीवन मिलता, उसको देता मर्ज़||
 
प्रतिपल यहाँ घुट रहीं नदियाँ, ये कैसा अभिशाप|
दूषित कर हम अमिय जलों को, खुद का करते नाश||

हाय प्रकृति की सुन्दर रचना, कैसे हुई कुरूप|
क्यों विज्ञानी प्रगति में धूमिल, पड़ गया दामिनि रूप||

बीते दिन की याद में जमुना, करती आज विलाप|
कहाँ गए वो ग्वाले तट पर, करते प्रेमालाप||

ताज मनुज को कोस रहा औ', यमुना रहा निहार|
क्यों छिना निज मातु का तूने, वो सौन्दर्य निखार||
-----------------------------------------------------
/श्रीमती लता ओझा जी//

मन का धोते मैल थे ,किसको था ये भास..
एक दिन शुद्ध जल भी ,लेगा अंतिम श्वांस..
मल ही होगा चहुँ ओर , फैलेगी दुगंध .
पाप हरेगा कब कोई.,नदियों को अब आस..
ताज विश्व का आश्चर्य ,और प्रदूषण रोग ,,
किसको व्यथा नहीं ,घड़ियाल से लोग ..
नीर दोनों चक्षु बहे ,हाथ थामते नोट ..
वोटर से पुनरुद्धार के नाम ,पुनः मांगते वोट..
अब तो आस भी सिमट रही ,एक परदे की ओट
सिसकती नदियों की आह भी नहीं ह्रदय पे चोट ..
-------------------------------------------------------


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प्रतियोगिता की दृष्टि से ’बाहर’ की रचनाएँ हों या ’अन्दर’ की सबका संदेश एक है -- हम उपयोगकर्त्ता के लिहाज से लापरवाह तो थे ही, जन-समुदाय के लिहाज से संवेदनाहीन भी हो गये हैं. रचनाकारों की समस्त प्रविष्टियाँ इस बात के प्रति आग्रही रहीं. 

 

हम तब तथाकथित अशिक्षित थे, हम अब तथाकथित शिक्षित हो गये हैं.

हम तब नदियों को ’माँ’ का मान और ’जीवनदायिनी’ का सम्मान देते थे. हम अब नदियों को अवशिष्टों का मात्र निकास-मार्ग समझते हैं.

हम तब धरोहरों को अपने जीवन-संस्कार का हिस्सा समझते थे, हम अब इन्हें कमाई का जरिया समझते हैं.

हमने तब पर्वतों, नदियों, पशुओं, वनस्पतियों और अन्यान्य प्राणियों के प्रति आदर-स्नेह का संबन्ध बनाया था.

हम अब स्वार्थ के चश्में और उपयोग के आयाम से अपने आस-पास को देखने लगे हैं. ..

दुःख यह नहीं कि हम इस दुर्दशा के गवाह हैं, दुःख यह है कि हम नदियों के पानी के साथ-साथ अपनी आँखों के पानी को भी मार दिया है.

 

सभी प्रतिभागियों को मेरा शत्-शत् नमन. गणेशभाई साहब को नव-विधा हेतु मेरी बहुत-बहुत बधाइयाँ.

 

आदरणीय योगराजभाईजी को आपके इस महती कार्य-संपादन हेतु मेरा सादर प्रणाम.

मेरे प्रवास-काल में नेट-कनेक्शन और सिस्टम के वायरल-प्रोब्लेम के कारण मेरी जो दुर्दशा हुयी है, आदरणीय, आपके सद्-प्रयास ने मुझे बहुत धनी किया है. आभारी हूँ.

आपका ह्रदय से अभार्री हूँ आदरणीय सौरभ भाई जी !
आदरणीय प्रधान संपादक जी ! इन सभी रचनाओं के एक साथ प्रस्तुतीकरण के लिए आप का हृदय से आभार !.......:))
बहुत बहुत आभार अम्बरीश भाई जी !

आयोजन की  समस्त रचनाएँ एक स्थान पर संजोने के लिए बहुत बहुत आभार ! यह आयोजन कई दृष्टियों से एक नवीनता और प्रयोगधर्मिता  लिए हुए रहा ! भाई बागी जी की एकादशी के लिए उन्हें बहुत बधाई ! और सफल सञ्चालन के लिए श्री अम्बरीश जी को भी ! सदस्यों की सक्रियता सराहनीय है !!  ओ बी ओ का मंच अपने नए कीर्तिमान बना रहा है !! शुभकामनाएं !

शुक्रिया अरुण भाई !
धन्यवाद वन्दना जी !
धन्यवाद शारदा जी !

आदरणीय शारदा जी, तीनो प्रतियोगितायों के परिणाम के लिंक पेश हैं :

 

(1)
http://openbooksonline.com/group/pop/forum/topics/5170231:Topic:73241

(2).
http://www.openbooksonline.com/group/pop/forum/topics/5170231:Topic...

(3).
http://www.openbooksonline.com/group/pop/forum/topics/5170231:Topic...

बहुत अच्छा प्रयास. सभी विजेताओं को बधाई.

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