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संग दीप के  ... 

जलने दो
कुछ देर तो
जलने दो मुझे

मैं साक्षी हूँ
तम में विलीन होती
सिसकियों की
जो उभरी थी
अपने परायों के अंतर से
किसी की अंतिम
हिचकी पर

मैं साक्षी हूँ
उन मौन पलों की
जब एक तन ने
दुसरे तन को
छलनी किया था
मैं
बहुत जली थी उस रात
जब छलनी तन
मेरी तरह एकांत में
देर तक
जलता रहा

मैं साक्षी हूँ
उस व्यथा की
जो किसी आँखों में
उसके साथ ही चली गयी
अपनी संतानों की उपेक्षा समेटे
बिन कहे

मैं साक्षी हूँ
हर चौखट की
जहाँ स्वार्थ के तेल में
मुझे जलाया जाता है
ईश को मनाया जाता है
मन्नतें मानी जाती हैं
प्रसाद चढ़ाया जाता है
फिर झूठ की सड़क पर
सच को दौड़ाया जाता है

अब रहने दो
बहुत घिनौनी है
दुनिया की सच्चाई
मुझसे कहा न जाएगा
लोग अपने अंधेरों के लिए
मुझे जलाते हैं
अपने अंधेरों से कतराते हैं
गुनाहों से झोलियाँ भरते हैं
फिर गुनाहों से लदे शीश
ईश की चौखट पर
झुकाते हैं

मैं अपने करम से
कैसे मुँह फेर लूँ
मेरा अस्तित्व तो
जलने के लिए है
मंदिर हो या मरघट
मुझे तो जलना है
क्योँकि
मैं
दीप की बाती हूँ
संग दीप के जलती हूँ
संग दीप के
बुझ जाती हूँ


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 424

Comment

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Comment by Sushil Sarna on May 14, 2018 at 3:47pm

आदरणीय राम शिरोमणि पाठक जी सृजन को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on May 14, 2018 at 3:47pm

आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब ... सृजन आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया का दिल से आभारी है।

Comment by Samar kabeer on May 9, 2018 at 6:18pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,उम्दा कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by ram shiromani pathak on May 9, 2018 at 4:28pm

सुंदर भावाभिव्यक्ति आदरणीय।।बधाई

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