"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-78 में प्रस्तुत रचनाओं का संकलन
विषय - "वंचित"
आयोजन की अवधि- 14 अप्रैल 2017, दिन शुक्रवार से 15 अप्रैल 2017, दिन शनिवार की समाप्ति तक
पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.
सादर
मिथिलेश वामनकर
मंच संचालक
(सदस्य कार्यकारिणी)
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समर कबीर
उल्लाला छन्द
देख रहा तू आज कल, हर इंसां को प्यार से । वंचित हम क्यों रह गये, तेरे इस उपकार से ।।
कितना अंतर आ गया,देखो कल से आज में । वंचित हर हक़ से हुए, हम भी तेरे राज में ।।
महरूमी के नाम पर,सबके सब ख़ामोश हैं । शेर यहाँ कोई नहीं,जो हैं वो ख़रगोश हैं ।।
जनता भारत देश की,सच कितनी मासूम है । ख़ुश है फिर भी देख लो,ख़ुशियों से महरूम है ।।
वंचित थे जो मंच से,ओबीओ पर आ रहे । सीख रहे हैं प्यार से,हमको भी सिखला रहे ।।
दुनिया की रंगीनियाँ, कैसे देखे यार वो । है ये महरूमी ‘समर’,आँखों से लाचार वो ।। |
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
१. मैं बछिया, माँ के साथ बिकी, औ’ सबने मुझसे प्यार किया। लोगों ने की माँ की सेवा, फिर बेरहमी से मार दिया॥ बाँ..बाँ..कहकर रोती रही मैं, कैसे माँ के बिना जिऊँगी। अभी उम्र है छोटी मेरी, जाने किसका दूध पिऊँगी॥ डर लगता है जल्लादों से, मैं इसी तरह कट जाऊँगी। गोलोक बुला गोपाल मुझे, कभी मृत्यु लोक न आऊँगी॥ जो पालन पोषण करती है, वो जग में ‘माँ’ कहलाती है। पर मर्द के हाथों पशु ही नहीं, औरत भी मारी जाती है॥
२. नौकर चाकर बच्चे पालें, आया मम्मा सी लगती हैं। पैसे वालों की संतानें, अक्सर इसी तरह पलती हैं॥ डांस, पार्टियाँ, पब की संस्कृति, अपना असर दिखाती हैं। फिगर बिगड़ जाने के डर से, डब्बे का दूध पिलाती हैं॥ भारत में फैला रोग नया, हम युवा वर्ग में पाते हैं। प्यार दुलार से वंचित हैं, वही डिप्रेसन में जाते हैं॥ |
प्रतिभा पाण्डे
सुविधाओं का मेला भारी मानव फिर भी सुख से वंचित
और और की आपाधापी करता क्यों ,कुछ तो दम ले ले I छोटे पल छोटी खुशियों के थाम जरा, चल मन में भर ले I
खुदगर्जी की कंकरीट ने मन की मिट्टी पत्थर कर दी I जीवन के निर्मल प्रवाह में काई संदेहों की भर दी I
अगले पल का भान नहीं पर, पूँजी है बरसों की संचित मानव फिर भी सुख से वंचित I
वो अजान दे बुला रहा है ये घंटों से टन टन करता I शोर शराबे में प्रभु छूटा आज दुखी है खुद दुख हरता I
वो जो बसता है घट घट में झगड़ें हैं क्यों उसके घर पर I दीन दुखी को भूल रहे सब शीत ताप में है जो बेघर I
प्रभु नाम पर नाटक कितने हर दिन होते रहते मंचित मानव फिर भी सुख से वंचितI |
ब्रजेन्द्र नाथ मिश्रा
वंचितों की दुनिया में जिंदगी सहमी हुई है।
गले में तूफ़ान भर लो, चीखें सुनाने के लिए,
मगरमच्छ हैं पड़े हुए उस नदी में हर तरफ,
आह उठती है यहाँ, और पत्थरों से बतियाती है।
रेगिस्तां की आंधियों में इक दिया टिमटिमाता है,
खुशबुएँ सिमट कर, किसी कोने में नज़रबंद थीं,
उम्मीदों के फ़लक पर आ गयी है जिंदगी,
वंचितों की दुनिया भी अब है उजालों से भरी,
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मोहम्मद आरिफ
क्षणिकाएँ
1.भरपूर उपज/ देकर भी किसान वंचित रह जाता है अपनी ख़ुशियों को जुटाने में बेटी के हाथ/ पीले करने में ख़ुद गिरवी चला जाता है ।
2.नहीं मिल पाता है/ देश की अदालतों से न्याय/ कोर्ट की फाइलों में दर्ज़ रहती है/ अगली तारीख़ें ।
3.गाँव शहरों में/ शहर महानगरों में बदल रहे हैं/ मगर महानगर शुद्ध हवा, पानी से/ वंचित हो रहे हैं ।
4.हम सब मिलकर/ मेक इन इंडिया का नारा बुलंद कर रहे हैं/ विदेशी उत्पाद के ग़ुलाम बन के/ स्वदेशीपन से रोज़ दूर हो रहे हैं ।
5. हम सब/ एक ऐसे काल खंड में जी रहे हैं/ जहाँ अवसर तो रोज़ पा रहे हैं/ मगर स्थापित होने से/ वंचित हो रहे हैं । |
नादिर ख़ान
क्षणिकाएँ
1. जारी है कवायद घरों को बांटने की किए जा रहे हैं अधिकारों से वंचित कमजोर लोग हावी होने लगे हैं पावरफुल लोग खाई और बढ़ने लगी है अमीर और गरीब के बीच...
2. तलाशे जा रहे हैं ज़हरीले अंश किस्से कहानियों में ...
खड़ी की जा रही है नफ़रतों की दीवार अपनों के बीच ...
दिलों मे हावी हो रहा है दिमाग का शतरंजी खेल ....
अलग थलग किए जा रहे है आँख की किरकिरी बने कमजोर लोग ... दबंगई जारी है ....
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डॉ टी. आर. शुक्ल
समतलों पर चलते, मरुतलों से गले मिलते, गिरिवरों को फांदते, चपला पवन से झगड़ते मैं बढ़ता ही जा रहा था उस अन्तहीन अन्त में, बहकता ही जाता था आसहीन प्यासे बसन्त में, दृग थक गये, पग रुक गये, पर, उसका पता नहीं... ।
उपवन शरमाते, पर्वत पर झरने गुर्राते, हर ओर कलरव सा छाया , क्षेत्र लगते लड़खड़ाते, आम्र ! वर्षों से तुम चुप्पी ही साधे हो , अब तक तो फलना था, बौर ही लादे हो ! हरित पर्ण पीत हुए, अस्तव्यस्त गीत हुए, पर, उसका पता नहीं... ।
ए समीरन् ! तू रुक जा, मुझ भ्रमित से तू इतना न शरमा, भले हॅूं अपरिचित, पर इतना न घबरा, बढ़ा दे इस लहराते आँचल को इस ओर, बांध दॅूं एक संदेश जिसको तू कह देना सब ओर, थिरकती कल्पनायें बनी आँसू, महकती भीनीं सांसें बनीं टेसु , पर, उसका पता नहीं .... । |
नादिर खान
जब हो रही हो साजिशें हमें कमजोर करने की अपनों से अलग थलग रखने की अधिकारों और खुशियों से वंचित करने की डरा धमका कर बाहर का रास्ता दिखाने की तब ज़रूरत है, जद्दो-जेहद करने की ज़रूरत है, अपनी आवाज़ को बुलंद करने की मुट्ठी को बांधकर, सीने को तानकर खड़े होने की ....ताकि उन्हें एहसास करा सकें हमारी ही मेहनत से वो तरक्की पर हैं हमारी ही पसीने से उनकी ज़िंदगियों में रौनकें हैं हमारी ही कोशिशों से उनके सपने आकार लेते हैं हमारे ही बलबूते पर उनका वजूद कायम है ....और बावजूद इन सब के हम शोषित हैं अधिकारों से वंचित हैं हम फुटपाथों पर जीने को मजबूर हैं हमारे ख्वाब उनके महलों के नीचे दम तोड़ रहे हैं ....तो फिर आओ अपनी आवाज़ को बुलंद करें कहीं वो दबकर न रह जाए चारदिवारी के भीतर उसे बाहर आने दें हम मज़दूर हैं ... मजबूर नहीं ..... |
तस्दीक अहमद खान
किया सनम ने जिसे एतबार से वंचित। क़सम खुदा की हुआ वो ही प्यार से वंचित।
ये अपना अपना मुक़द्दर है अपना दामन है कोई है गुल से भरा कोई खार से वंचित।
दुआ खुदा से हमेशा ये मांगता हूं मैं रहें वो प्यार की बाजी में हार से वंचित।
वतन में ख़त्म करो रहबरों रिज़र्वेशन अक़ील होने लगे रोज़गार से वंचित।
कहाँ परायों की अपनों की महरबानी है हुआ यूँ ही न मैं दीदारे यार से वंचित।
अगर न महर बाँ काँटों पे बागबां होता कभी न होता गुलिस्ताँ बहार से वंचित।
लगाना सोच के तस्दीक़ प्यार की बाजी रहेगा क़ल्ब सुकूं और क़रार से वंचित।
मुनीश 'तनहा'
लगते हैं सुविचार से वंचित अपने ही अधिकार से वंचित
अपना उनको कैसे बोलें जो करते घर बार से वंचित
तुमको कैसे सब आज़ादी हम कैसे परिवार से वंचित
अच्छे दिन तो तुम दिखलाओ हम हैं लेकिन प्यार से वंचित
इस भारत के हम भी वासी फिर कैसे सरकार से वंचित
हिटलर ने अब थामी गद्दी अब होंगे अखबार से वंचित |
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
ये दुनिया अजब निराली है, सब कुछ से बहुतेरे वंचित। पूँजी सात पीढ़ियों तक की, करके रखली कुछ ने संचित।।
देखो जिधर उधर ही क्रंदन, सबका अलग अलग है रोना। अधिकारों को कहीं तरसते, है कहीं भरोसे का खोना।।
पग पग पर वंचक बिखरे हैं, बचती न वंचना से जनता। आशा जिन पर टिकी हुई है, छलते वे जब कहे न बनता।।
जिनको भी सत्ता मिली हुई, मनमानी मद में वे करते। हो कर वशीभूत स्वारथ के, हक वे जनता के सब हरते।।
पग पग पर अबलाएँ लुटती, बहुएँ घर में अब भी जलती। पाली दूध पिला जो बच्चे, वृद्धाश्रम में वे खुद पलती।।
नवजातों को दूध न मिलता, पोषण से दूध मुँहे वंचित। व्यापार पढ़ाई आज बनी, बच्चे शिक्षा से हैं वंचित।।
मजबूर दिखें मजदूर कहीं, मजदूरी से वे हैं वंचित। जो अन्न उगाएँ चीर धरा, वे ही अन्न कणों से वंचित।।
शासन की मनमानी से है, जनता अधिकारों से वंचित। खुदगर्जी से पदासीन की, दफ्तर सब कामों से वंचित।।
गाँवों में है प्राण देश के,पर ये प्राण सड़क से वंचित। जल तक शुद्ध नहीं मिल पाता, विद्युत से बहुतेरे वंचित।।
संख्या अस्पताल की थोड़ी, मँहगी आज दवाएँ भारी। है आज चिकित्सा से वंचित, जनता रोग पीड़िता सारी।।
खुद का धंधा करे चिकित्सक, सूने अस्पताल हैं रहते। जज से वंचित न्यायालय हैं, फरियादी कष्ट किसे कहते।।
सब कुछ आज देश में है पर, जनता सुविधाओं से वंचित। अधिकारों के लिए सजग हों, वंचित कोई रहे न किंचित।। |
मनन कुमार सिंह
अब बता भी दीजिये है, कौन वंचित मच गया इतना सियापा कौन वंचित?1
वंचितों का नाम लेकर जो चला था पूछता चिकना घड़ा-सा, कौन वंचित?2
जिंदगी बनता रहा जनतंत्र की जो आज फिर उसको बताता कौन, वंचित?3
कुर्सियों की चोट से घायल हुआ इक, कुर्सियाँ इक दे रहा था,कौन वंचित?4
भाग जिसका खा गया कोई मसीहा जूझता बेमर्तबा वह,कौन वंचित?5
आइये इजहार कर लें हाल फिर से सच कहा उस बदज़ुबाँ ने,कौन वंचित?6
हाजरीनों के मुतल्लिक वीथियाँ हैं भूखमरी का नाच होता,कौन वंचित?7 |
डॉ. विजय शंकर
तुम्हारे वंचितत्व को प्रणाम |
अजय गुप्ता 'अजेय
किसान के पास था/ जमीन का टुकड़ा अनाज होता था/ और पेट भरता था बहुतों का।
बिक गया वो टुकड़ा/ कारखाना बन गया रोजगार लग गए/ और फिर से पेट भरने लगा/ वैसे ही बहुतों का।
हासिल क्या किया/ हवा, पानी और धरती को खोकर।/ वंचित वर्ग में आ गए अपनी धरती से/ वंचित होकर। |
डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव
किरीट सवैय्या ---भगण x 8 संसृति और नही कुछ है जग-भूषण के नग की नगता यह भोग भरा यह जीवन है सच यौवन में सबको लगता यह मायिक खर्व समस्त प्रलोभन ढीठ प्रवंचक सा ठगता यह नींद-खुमार कभी न मिटे जग वंचित जीव नहीं जगता यह
दुर्मिल सवैय्या---सगण x 8 जग में बिखरा यह भाव भरा सब जीवन है विधि मंचित रे कब कौन यहाँ हुलसा-विलसा भव में सब लिप्त प्रवंचित रे रहते है सभी जग में भ्रम में सहते-करते सुख संचित रे सब छोड़ गये अपनी गठरी प्रति जीव यहाँ जग-वंचित रे? |
राजेश कुमारी
ग़ज़ल
कोई विस्मृत है यहाँ चर्चित कोई कोई व्याकुल और है हर्षित कोई
एक माटी के बने जब सब घड़े कोई खाली और क्यूँ पूरित कोई ?
जग बनाकर सोचता भगवान है रह न जाए प्रेम से वंचित कोई
तुच्छ कर्मों की सजा मिलती यहीं जानकर भी भय नही किंचित कोई
मर रहा है आज खुद ही प्यास से गाँव का कूआँ कहे वर्जित कोई
फल यहाँ मिलता है केवल नाम से पौषता कोई मगर अर्चित कोई
हाय लोगे बस गरीबों की सदा ख़्वाब उनका तोड़कर निर्मित कोई
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सुरेश कुमार 'कल्याण'
सुनते थे हम बचपन बिगड़े,अधिक लाड़ और प्यार से। बचपन वंचित देख रहा हूँ, आज शिक्षा के अधिकार से।।
आठ साल तक पढ़े कुछ नहीं,पहुंचे नौवीं जमात में। ककहरे का ज्ञान न पाया,उलझे दाल और भात में।।
कितना अंतर शिक्षा का है,निजी सरकारी स्कूलों में। अमीर गरीब सब मानव हैं,अंतर शायद रूलों में।।
गुरू का आदर खत्म हुआ,तोल रहे हैं तराजू में। निजी स्कूल मनमानी करते,खुले आजू और बाजू में।।
सरकारी शिक्षा मिले मुफ्त में,निजी बिके हैं भावों में। जनता लुटती जाती निशदिन,आधुनिकता के चावों में।।
बाहर से हैं इंडियन सारे,अंदर से हम अंग्रेज हुए। मैकाले का असर अभी तक,ज्यौं हिंदी से परहेज हुए।।
संस्कृति से वंचित होते,रू-ब-रू होते हम बार से। सांप निकल गया लीक पीटते,वंचित हैं हम सार से।।
अंग्रेजी को शान समझते,संस्कार सब फिजूल गए। कौवे चले हंस की चाल,अपनी भी हम भूल गए।। |
सुशील सरना
फेर लिया था मैंने अपने चेहरे को जब तुमने मेरे अनुरोध पर अपनी पलकों को झुकाकर मेरी तृषित पीर पर कुठाराघात किया था फेर लिया था मैंने अपने चेहरे को जब तुमने मेरे हर अंतरंग क्षण को उदासी के आवरण से ढक मेरे अबोध भावों को कृत्रिम सान्तवना के शब्दों से मरहम लगाने का प्रयास किया था फेर लिया था मैंने अपने चेहरे को जब तुमने मेरे कुंतल लटों की अठखेलियों को अपनी उँगलियों के स्पर्श का दान देना चाहा फेर लिया था मैंने अपने चेहरे को जब तुम जीवन प्रभात से पूर्व ही यथार्थ से भ्रम बन गए फेर लिया था मैंने अपने चेहरे को मगर तुम्हारे निष्ठुर होने के बाद भी तुम्हारे स्मृति बंधन से स्वयं को मुक्त न कर सकी दृग में संचित खारे जलनिधि से बस अपने विगत पलों को ये सोच कर सिंचित करती रही की मेरा कोई भी पल उसके अंतरंग पल की अनुभूति से कभी वंचित न हो |
नयना(आरती)कानिटकर
वंचित----(अतुकांत)
कई बार हृदय का द्वार खोल निकलती हूँ बाहर टकटकी बाँधे खोजती रहती हूँ अपना अस्तित्व तुम तो अनिवार्यता हो मेरी जैसे पंच तत्व पृथ्वी, जल ,वायु, अग्नि नेहमयी नभ की तरह फिर भी तुम अप्राप्य बस एक स्मृति जैसे अनचिन्ही अभिलाषा पूर्णता खोजती मानो हृदय के सन्नाटे में सपने के उभरते बिंबो में ये मेरा हठ है या और कुछ नहीं जानती बस! तकती रहती हूँ पर निराश हो स्वयं को इस तृप्ति से वंचित पाती हूँ
लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
किटी-पार्टियों में व्यस्त रहे, पढ़ी-लिखी घर नार रहे प्यार से वंचित बच्चे, मिले न माँ का प्यार |
बिना संस्कार ही पलते शिशु है, उनके धुंधले बिम्ब सूख रहे है सारे अब तो, सम्बन्धों के निम्ब |
फूल-सरीखा कोमल बचपन, मात निखारे रूप बिना प्यार के मुरझा जाता, पा कटुता की धुप |
नहीं निभाते आज जहां पर, प्यार भरे सम्बन्ध, स्वार्थ-द्वेष परत ह्रदय पर, जमा करे दुर्गन्ध |
देख कार्टून वक्त गुजारे, उसे न जग का भान हीन भावना घेरे उसको, कैसे भरे उड़ान |
क्षमता आये हर बच्चें में, जीवन हो अनुकूल , बढे होसला हरपल उसका, पुष्पित हो तब फूल | |
सतविन्द्र कुमार
ग़ज़ल
रही जूझतीं पर सहारा न था मेरी कश्तियों को किनारा न था
गिराया उसी ने जिसे दी पनाह खिजाँ से शजर कोई हारा न था
जो तैरा उसे हाथ सबने दिये *मगर डूबते को सहारा न था*
दिलों में वो जिन्दा रहेगा शहीद कभी हौंसला जिसने हारा न था
अचानक ही बारिश ये कैसे हुई किया बादलों ने इशारा न था |
सतीश मापतपुरी
सुखी बाबू ! सोचो जरा , कितने काले धन संचित हैं । पर तेरे बीच के बहुत लोग , थोड़े सुख से भी वंचित हैं ।
पैसा तेरा पड़ा है यूं ही , कब से इस तहखाने में । पर नसीब नहीं कितनों को , रोटी - नमक भी खाने में ।
थोड़ा सा दिल बड़ा करो बस , इनकी जरूरत किंचित हैं । पर तेरे बीच के बहुत लोग , थोड़े सुख से भी वंचित हैं ।
वोट ही तो इनकी पूँजी थी , वो भी तुमको दान किया । सुखिया से सुखी बाबू बन गये , पर इनको ना मान दिया
इनके बीच के होकर भी , ये तेरे लिये अकिंचित हैं । पर तेरे बीच के बहुत लोग , थोड़े सुख से भी वंचित हैं ।
जाति - धर्म के पचड़े में , मतदाता क्यों लुट जाते हैं । बस चुनाव के वक़्त फ़क़त वो , जनार्दन बन जाते हैं ।
बाद में राज ये खुलता है , सच में तो वो प्रवंचित हैं । पर तेरे बीच के बहुत लोग , थोड़े सुख से भी वंचित हैं । |
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