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उन्हें देखकर ये बदलने लगा
नहीं टिक सका दिल फिसलने लगा

नदी से मिलन की घड़ी आ गयी
*समन्दर खुशी से मचलने लगा*

जमाने से मिलती रही ठोकरें
उन्हीं की बदौलत सँभलने लगा

लगा संग दिल ही था जो अब तलक
वो किलकारियों से पिघलने लगा

पड़ोसी लगाता रहा आग जो
वही आज खुद देखो जलने लगा

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 20, 2017 at 11:49am
आदरणीय महेंद्र कुमार जी सादर,हौंसलाफ़ज़ाई के लिए सादर हार्दिक आभार
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 20, 2017 at 11:48am
आदरणीय समर कबीर सर,सादर नमन,हौंसलाफ़ज़ाई के लिए बहुत-बहुत हार्दिक आभार
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 20, 2017 at 11:46am
आदरणीय सुरेन्द्र भाई जी,उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 20, 2017 at 11:46am
आदरणीय मुहम्मद आरिफ जी,सादर नमन प्रयास के अनुमोदन,एवं हौंसलाफ़ज़ाई के लिए बहुत बहुत हार्दिक आभार,
Comment by Mahendra Kumar on September 25, 2017 at 7:56pm

उन्हें देखकर ये बदलने लगा
नहीं टिक सका दिल फिसलने लगा ...बहुत ख़ूब!

बढ़िया ग़ज़ल है आ. सतविन्द्र भाई जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर. 

Comment by Samar kabeer on September 25, 2017 at 5:53pm
जनाब सतविन्द्र कुमार जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by नाथ सोनांचली on September 25, 2017 at 4:21am
आदरणीय सतविंद्र भाई जी सादर अभिवादन, बढ़िया ग़ज़ल । हर शे'र लाजवाब । हार्दिक बधाई स्वीकार करें
Comment by Mohammed Arif on September 24, 2017 at 10:55am
आदरणीय सतविंद्र कुमार जी आदाब, बढ़िया ग़ज़ल । हर शे'र लाजवाब । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

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