सभी साहित्य प्रेमियों को प्रणाम !
साथियों जैसा की आप सभी को ज्ञात है ओपन बुक्स ऑनलाइन पर प्रत्येक महीने के प्रारंभ में "महा उत्सव" का आयोजन होता है, उसी क्रम में ओपन बुक्स ऑनलाइन प्रस्तुत करते है ......
"OBO लाइव महा उत्सव" अंक ८
इस बार महा उत्सव का विषय है "रिश्ते"
आयोजन की अवधि :- ८ जून बुधवार से १० जून शुक्रवार तक
महा उत्सव के लिए दिए गए विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी अप्रकाशित रचना साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते है साथ ही अन्य साथियों की रचनाओं पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते है | उदाहरण स्वरुप साहित्य की कुछ विधाओं का नाम निम्न है ...
विधाएँसाथियों बड़े ही हर्ष के साथ कहना है कि आप सभी के सहयोग से साहित्य को समर्पित ओबिओ मंच नित्य नई बुलंदियों को छू रहा है OBO परिवार आप सभी के सहयोग के लिए दिल से आभारी है, इतने अल्प समय में बिना आप सब के सहयोग से कीर्तिमान पर कीर्तिमान बनाना संभव न था |
इस ८ वें महा उत्सव में भी आप सभी साहित्य प्रेमी, मित्र मंडली सहित आमंत्रित है, इस आयोजन में अपनी सहभागिता प्रदान कर आयोजन की शोभा बढ़ाएँ, आनंद लूटें और दिल खोल कर दूसरे लोगों को भी आनंद लूटने का मौका दें |
( फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो ०८ जून लगते ही खोल दिया जायेगा )
यदि आप अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.com पर जाकर प्रथम बार sign up कर लें |
नोट :- यदि आप ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार के सदस्य है और किसी कारण वश महा इवेंट के दौरान अपनी रचना पोस्ट करने मे असमर्थ है तो आप अपनी रचना एडमिन ओपन बुक्स ऑनलाइन को उनके इ- मेल admin@openbooksonline.com पर ०८ जून से पहले भी भेज सकते है, योग्य रचना को आपके नाम से ही महा उत्सव प्रारंभ होने पर पोस्ट कर दिया जायेगा, ध्यान रखे यह सुविधा केवल OBO के सदस्यों हेतु ही है |
मंच संचालक
धर्मेन्द्र कुमार सिंहTags:
Replies are closed for this discussion.
इस आग़ाज़ के लिये बहुत-बहुत शुक्रिया.
जिस लिहाज से जीवन की गति बढ़ती जारही है, जीवन में आपाधापी बढ़ी है, बरबादियों के लिये सबसे आसान लक्ष्य रिश्ते हो गये हैं. विश्वास और भरोसे की बलि सबसे पहले चढ़ती है. तभी तो कहा गया - कमज़ोर आज रिश्तों की बुनियाद हो गयी.
ये अशआर मौजूँ लगा -
//तलवार ,धोखेबाज़ी की अपनों पे ही चले,
ग़ैरों का साथ देने में उस्ताद हो गई। .//
अपका तहे दिल शुक्रिया योगराज प्रभाकर जी ,आप लोगों का प्यार से ही लेखनी के जज़बे को
परवान मिलता है।
वाह वाह संजय भईया, बहुत ही उम्द्दा ग़ज़ल पेश किया है आपने, वाकई बहुत ही बुलंद ख्यालात है,
तलवार ,धोखेबाज़ी की अपनों पे ही चले,
ग़ैरों का साथ देने में उस्ताद हो गई।
इस शे'र को कोट करने से मैं अपने आप को नहीं रोक सका, क्या बेहतरीन कहन को प्रस्तुत किया है आपने , यह शे'र heart touching है , बहुत बहुत बधाई |
बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है। इस महाउत्सव का इससे बेहतरीन आगाज़ क्या हो सकता है। हर शे’र शानदार है।
विश्वास की नदी की जवानी थकी थकी,
मंझधार अब किनारों की अवसाद हो गई।
ये शे’र तो गजब ढा रहा है।
दानी जी को हार्दिक बधाई।
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