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सौंधी सौंधी मिट्टी महके
चीं-चीं चिड़िया अम्बर चहके ।

बाँह भरे हैं जब धरा गगन
बरगद पीपल जब हुये मगन
गांव बने तब एक निराला
देख जिसे ईश्वर भी बहके ।

ऊँची कोठी एक न दिखते
पगडंडी पर कोल न लिखते
है अमराई ताल तलैया,
गोता खातीं जिसमें अहके ।

शोर शराबा जहां नही है
बतरावनि ही एक सही है
चाचा-चाची भइया-भाभी
केवल नातेदारी गमके ।

सुन-सुन कर यह गाथा
झूका रहे नवाचर माथा
चाहे  कहे हमें देहाती
पर देख हमें वो तो जहके ।

-रमेश चौहान

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मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 14, 2016 at 7:45pm
जनाब रमेश चौहान साहब सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई ।
Comment by रमेश कुमार चौहान on September 13, 2016 at 6:41pm

जी,, सादर आभार आदरणीय गुप्ताजी,

बहुत-बहुत आभर आदरणीय कबीर साहब

Comment by रामबली गुप्ता on September 13, 2016 at 4:56pm
आद0 रमेश कुमार जी गीत पर सुंदर प्रयास हुआ है।
बरगद पीपल जब हुये मगन।
गांव बने तब एक निराला।

इसमें प्रवाह बाधित है।
झुका/झूका में सम्भवतः टंकण त्रुटि है।
Comment by Samar kabeer on September 13, 2016 at 11:40am
जनाब रमेश चौहान साहिब आदाब,बढ़िया रचना हुई,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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