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हर बच्चे के लिए उसकी माँ सबसे खूबसूरत और प्यारी होती है , बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति प्रदत्त विषय पर | बहुत बहुत बधाई आ
धूल सने दर्पण (विषयाधारित लघुकथा)
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पत्नी की पीठ का दर्द दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था I सब घरेलू नुस्खे बेअसर साबित हुए थे, अत: बाबूजी उन्हें किसी विशेषज्ञ को दिखाना चाहते थे I कई दिनों से अपने बेटे से आग्रह कर रहे थे किन्तु बेटा उनकी बात को अनसुना करता आ रहा था I आज तो उसने दफ्तर में काम का बहाना बनाकर माँ को साफ़ इनकार कर दिया I बेटे का यूँ जवाब दे देना उन्हें बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था I पत्नी का रुआंसा सा चेहरा देख बाबू जी ने कहा:
"चल भागवान, मैं ही ले चलता हूँ तुम्हें डॉक्टर के पास I"
दर्द से लगभग कराहती हुई पत्नी को लेकर डॉक्टर के पास चल पड़े I कॉलोनी में निकल कर सड़क पार करते हुए पत्नी ने यकायक कम्पनी बाग़ की तरफ इशारा करते हुए पूछा:
"देखो जी, ये वही पार्क है न जहाँ कभी हम देर रात तक बैठे बतियाया करते थे ?"
"हाँ !" बाबू जी ने ठंडी सी आह भरते हुए उत्तर दिया I
"समय कितनी तेज़ी से बीत जाता है, नईं ?"
"सही कहती हो i" बाबू जी के स्वर में अभी भी उदासी थी I
"चलो न, थोड़ी देर के लिए चलें अन्दर I"
"अरे मगर डॉक्टर के पास भी तो जाना है, खामखाह देर ही जाएगी I"
"थोड़ी देर बाद चलें जायेंगे, अभी चलो न पार्क में I" पत्नी ने जिद करते हुए कहा I
"अच्छा अच्छा, चलता हूँ I" पार्क की ओर मुड़ते हुए वे बोले I "अच्छा अब तुम यहाँ आराम से बैठ जाओ I" पार्क में प्रवेश करते ही बेंच की तरफ इशारा करते हुए बाबूजी ने कहा I
"तुम्हें याद है बरसों पहले हम दोनों कितनी मस्ती किया करते थे यहाँ ?" पत्नी की आखों में एक अजीब सी चमक आ रही थी I
"हाँ याद है ! और फिर हम स्टेशन के पास वाले ठेले से अक्सर शाम को चाट पापड़ी भी खाने जाया करते थे ?"
"हाँ, बिलकुल याद है I"
"पता नहीं क्यों आज बीते हुए वक़्त की यादें फिर से ताज़ा हो उठी हैं I"
"एक बात कहूँ जी ?"
"हाँ कहो न I"
"आज हम पहले यहाँ चाट पापड़ी खायेंगे, फिर बड़े चौक पर जाकर बर्फ की चुस्की I"
"तुमने तो मेरे मुँह की बात छीन ली, हम दोनों जगह ही चलेंगे I"
"उसके बाद माल रोड की ठंडी हवा भी खाने चलेंगे I" पत्नी का पीला चेहरा अब गुलाबी होने लगा था I
"जो हुकम मेरी सरकार ! तो मैं कोई ऑटो रिक्शा देखता हूँ I" बाबू जी के स्वर में अब उत्साह था I
"ऑटो रिक्शा क्यों जी ? हम तो यूँ ही पैदल टहलते टहलते जायेगे I" पत्नी ने बेंच से उठते हुए कहा I
"अरे इतनी दूर पैदल ? मगर तुम्हारा पीठ का दर्द..... ?"
"अब कोई दर्द नहीं है जी मुझे I बस तुम हाथ पकड़ लो मेरा I"
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(मौलिक और अप्रकाशित)
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गजब की रचना है आदरणीय सर| पुरानी बातों को दोहराते-दोहराते पुराने समय में चले जाना और उसका असर मन, मस्तिष्क और शरीर पर होता ही है| एक-एक शब्द पढने पर फिर एक पूरी क्लास हो जाती है | नमन आपको |
वाह्ह्ह कहूँ या आह्ह इस लघु कथा पर ...कल्पना करके ही कितना अच्छा लगता है अतीत में डूबना धूल पड़े दर्पण में वो ताजा मुखड़े का सुकून ढूँढना पिछले सुखदाई प्रष्टों को पलटना |आपकी इस कहानी को दो बार पढ़ चुकी हूँ जितनी भी तारीफ की जाए कम होगी .आपको दिल से बहुत बहुत बधाई इस शानदार प्रस्तुति पर आदरणीय योगराज जी .
वक़्त की धूल ने ,उम्र की चादर चढ़ा रिश्तों की दर्पण को मलिन कर दिया था .जरा प्यार और साथ की संगत क्या मिली ,धूल साफ़ हो गया .बीते सुखद पलों को फिर से जी लेने की आकांक्षा ने मन-मस्तिष्क को चमका ही दिया .सूक्ष्म अन्वेषण सर जी .
ध्यानाकर्षण हेतु शुक्रिया भाई सतविंदर कुमार जी I
दर्द तो दिल में मायूसी का छाया रहता है ,जो धीरे -धीरे देह के पोर -पोर तक समाता जाता है। जब खुशियों के लिए दूसरों पर आश्रित हो उठते है तभी ये उदासियाँ बीमारी बन जाया करती है।
वक़्त के थपेड़ों से ही सही ,एक दूसरे के संग ख़ुशी ढूंढ ली और जीना सीख लिए। जिंदगी को मुस्कुराती देख बीमारियों ने भी किनारा कर लिया।
जीवन का आनंद हमारे आस-पास ही होता है।
कथा का शिल्प देखते ही बनता है यहां। बाकी आपकी अपनी लाज़वाब शैली ! पढ़कर मन आनंद -आनंद हो गया। बहुत कुछ सीखा गए आज फिर आप हम सबको अपनी कथा के माध्यम से । नमन सर जी
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