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जहाँ बीता था बचपन ये हजारों खेल खेले हम
उलझते थे पतंगों में तो सुलझाना भी होता था |
बहुत खूब अम्बरीश भाई, "लड्काई" याद दिला दिया आपने |
आज तक याद है हमको वो मंजर और अफसाने
खुली जब आँख जागे हम तो घबराना भी होता था |
यह तो अभी भी होता है , बहुत बढ़िया , बढ़िया ग़ज़ल , दाद कुबूल कीजिये |
भाई बागी जी ! इस बेहतरीन दाद के लिए आपका तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया ........
खुले जब आँख घबराना बहुत प्यारी है "लड्काई".
दिलाये दाद गंगा की तो हरषाना भी होता है..
आदरणीया शारदा जी
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