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ग़ज़ल : हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है

बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२

 

हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है

न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है

 

जिसे ढो रहे हैं मुफ़लिस है वो पाप उस जनम का

जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है

 

जो है लूटता सभी को वो ख़ुदा को देता हिस्सा

ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है

 

जहाँ रब को बेचने का, हो बस एक जाति को हक

वो है घर ख़ुदा का या फिर, वो दुकान-ए-बंदगी है

 

वो सुबूत माँगते हैं, वो गवाह माँगते हैं

जो हैं सावधान उनका ये स्वभाव कुदरती है

 ------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by मनोज अहसास on October 19, 2015 at 7:05am
आदरणीय धर्मेन्द्र जी और अन्य सभी महापुरुष
सादर नमस्कार
चूँकि मैं अभी आपकी तरह परिपक्व नहीं हूँ न ही ज्ञानी हूँ
और चार्वाक का दर्शन तो मेरी छोटी समझ में आ ही नहीं पाया
नहीं तो मै भी आप सब की तरह शांति से इसकी तारीफ करता

मेरी छोटी समझ में ये साहित्य का विषय नहीं ये धर्म के एक विशेष मान्यता के विरोध और अपमान से सम्बंधित है
अगर आप नास्तिकता की बात करते है तो कोई बात नहीं आपकी इच्छा है मान्यता है
पर पूर्व जनम बताने वाली किताब को किताबे गंदगी बताना गलत लगा

दुनिया में और भी धर्म से सम्बंधित किताबे है
आप उनके बारें में भी अपनी महान सोच लिखकर दिखाए

अपने अपनी पिछली कृति देशद्रोह में राम और रहीम को आपस में बदलने की बात कही है
इस ग़ज़ल में भी वो मिसरा जो पूर्वजन्म को बताता है
उसकी जगह ऐसा मिसरा लेकर दिखाइए जिसमे उन किताबो का भी वर्णन हो जो पूर्व जनम को नहीं बताती और धार्मिक है


क्या आपकी नज़र में केवल एक ही धर्म आस्तिक है
और भी धर्म है
उनपर भी कलम चलाइये
पर आप ऐसा नहीं करेगे
क्योंकि आपभी उसी पीड़ित सोच से ग्रस्त है जिसमे एक धर्म के विरोध को धर्मनिरपेक्षता और दूसरे के विरोध को साम्पर्दायिक्ता कहा जाता है


मेरे पास शब्दों की और ज्ञान की आप की तुलना में कमी हो सकती है पर मैं आपकी
इस सोच का पुनः अपनी कमजोर आवाज़ में विरोध करता हु

एक और बात अगर आप किसी भी अन्य धार्मिक मान्यता चाहे वो जिस धर्म से सम्बंधित हो का नकारत्मक वर्णन करेगे मै उसका भी विरोर्ध्
करूँगा ही निश्चित

आप भी स्वतन्त्र है मैं भी
और ये मंच भी

मंच अगर सकारात्मक चिंतन को ही अपना मुख्या आधार मानता है
तो मुझे कोई समस्या नहीं है

सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 19, 2015 at 1:39am

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, बहुत ही शानदार बह्र में ग़ज़ल कही है आपने. ये बह्र मुझे बहुत पसंद है. ग़ज़ल के अशआर बहुत बढ़िया हुए है. इस ग़ज़ल में एक शेर के शब्द किताब-ए-गंदगी में गंदगी शब्द शेर के सौन्दर्य को कमजोर कर रहा है. (यकीनन आपके पास शब्दों की कमी नहीं है.) ये शब्द चयन गद्य विधा हेतु ठीक है लेकिन ग़ज़ल ?.... ऐसा ही कुछ ग़ालिब चचा भी कह गए है-  //हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन. दिल के बहलाने को गा़लिब ये ख़याल अच्छा है.//

 ग़ज़ल में ऐसी कहन के लिए प्रतीकात्मक या कलात्मक होना ज्यादा अच्छा होता है. मेरे हिसाब से. इस बात को मुझे इस तरह कहना अच्छा लगता -

जो किताब कह रही हो वो किताब मतलबी है.......... मतलबी शब्द पर पुनः आपका ध्यान आकर्षित कर रहा हूँ. क्योकि कई गंदगी का मूल मतलब या स्वार्थ ही रहा है. 

संभवतः मैं अपनी बात स्पष्ट कर सका हूँ. 

बाकी अशआर मस्त ... जिस लहजे की ग़ज़ल है उसमें ऐसी कहन का होना स्वाभाविक है. बधाई इस ग़ज़ल पर 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2015 at 12:31am

आदरणीय गोपाल नारायन जी, ग़ज़ल का हर शे’र मुक्त होता है। मत्ले में जिस ख़ुदा के अस्तित्व को नकारा गया है  वो ख़ुदा वह है जिसने सृष्टि का निर्माण किया है। मैंने ऐसे किसी ख़ुदा के अस्तित्व से इनकार किया है क्योंकि  सृष्टि अपने आप बनती मिटती है इसमें किसी ख़ुदा का कोई रोल नहीं होता।

तीसरे शे’र में जिस ख़ुदा से लड़ने की बात हो रही है वो वह विचार / कल्पना है जो कुछ धर्मों में चंद विशेष जातियों ने दूसरी जातियों का शोषण करने के लिए रचा है और इस शोषण के पाप से मुक्त होने के लिए उस ख़ुदा को अपनी पाप की कमाई से हिस्सा देने का भी प्रावधान रखा है।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2015 at 12:27am

आदरणीय मनोज कुमार जी, मैं किसी की मान्यताओं और आस्था से खिलवाड़ नहीं कर रहा हूँ। चार्वाक को हमारे देश में ऋषि कहा जाता है और उनके विचारों को लोकायत दर्शन कहा जाता है। मैंने कोई नई बात नहीं की है सिर्फ़ पुरानी बातों को ही नए तरीके से कहा है। इससे आपकी भावनाएँ आहत हो रही हैं तो इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता। अधिक जानकारी के लिए यह लिंक देखें।

https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%...

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2015 at 12:23am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय रवि शुक्ला जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2015 at 12:22am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 18, 2015 at 1:06pm

अ० धर्मेन्द्र जी , आप के तेवर बगावती है और आपने खुदा के वजूद को नकारा है . यह सोच नयी नहीं है पहले भी नास्तिकता बहुत चर्चा में रही है पर आपकी यह पंक्ति विरोधभास प्रकट करती है --ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है एक और आप खुदा के वजूद को नकारते हैं दूसरी और आपकी कलम खुदा से लड़ने  का दावा करती है . सादर .

Comment by मनोज अहसास on October 17, 2015 at 1:09pm
आदरणीय धर्मेन्द्र जी आपके द्वारा डाली गई इस पोस्ट से मै विचलित हूँ

और प्रतिरोध की स्थिति में बहुत प्रयास के बाद भी टिपण्णी के लिए निरपेक्ष शब्दों का चयन नहीं कर पा रहा हूँ

मंच की जिम्मेदार और वरिष्ठतम आवाजे आपके बारें में क्या कहेगी पता नहीं
पर मैं इसे विवादित लिखकर प्रसिद्धि पाने का प्रयास कहता हूँ

आपके रचना कर्म का सम्मान है
पर आप हमारी मान्यताओ और आस्था से खिलवाड़ न करें
ये प्रार्थना है


मै सार्वजनिक रूप से इस पोस्ट का निंदा करता हूँ
मंच से भी यही आशा है
सादर
Comment by Ravi Shukla on October 16, 2015 at 12:45pm

आदरणीय धर्मेन्‍द्र जी ग़ज़ल के प्रयास के लिये बधाई स्‍वीकार करके शिल्‍प बहुत सुन्‍दर है और कथ्‍य बहुत कुछ सोचने को विवश कर रहा है । देखते है और साथी इस पर क्‍या विचार लेकर आते है । सादर

Comment by Shyam Narain Verma on October 16, 2015 at 12:01pm
सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई।

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