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जिये जा जिये जा (एक बहुत छोटी बह्र पर ग़ज़ल 'राज')

१२२ १२२

भलाई किये जा

बुराई लिये  जा

 

उन्हें बाँट अमृत

जहर खुद पिये जा

 

तेरे पास जो है

दिये जा दिये जा

 

उन्हें तू उठा दे 

मगर खुद निये जा  

 

जवानी लुटा दे

बुढ़ापा सिये जा

 

जमाना ख़रा है

भरोसा किये जा

 

यही जिन्दगी है

जिये जा जिये जा

-------(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 15, 2015 at 10:18pm

आ० गणेश जी ,आपकी तारीफ पाकर ग़ज़ल मुकम्मल हुई ,दिल से बहुत बहुत आभार आपका ....उस शेर के विषय में नीचे लिखा है |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 15, 2015 at 10:16pm

प्रिय निधि जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से आभार आपका |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 15, 2015 at 10:15pm

हाहाहा  आ० सौरभ जी,सही समझा फुलकी  की बात मुझे भी याद है आप नहीं समझाते तो यहाँ भी वही हाल होता  ...यह शब्द मैंने गाँव में सुना है किन्तु इस पर सभी का संशय बना रहेगा इस लिए इस शेर को ही निकाल दूँगी  क्यूंकि दूसरा काफिया मिलना असंभव सा लग रहा है ...आपकी नजर में यहाँ कोई और शब्द फिट होता है तो बता दीजियेगा .आपका बहुत- बहुत आभार 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 14, 2015 at 5:55pm

छोटी बहर में अच्छी ग़ज़ल हुई है, इसके लिए बहुत बहुत बधाई.

//आप्नी आमार ऐक्टु गोप्प ’निये’ जाउ, आदरणीया, जे एइ खाने प्रोजुक्तो ’निये’ टा खूब भालो शब्दो होबे ना..

:-))//
सौरभ भईया से सहमत हूँ .....दो बातें हो सकती हैं......(एक फिल्मी गाने से) 

Comment by Nidhi Agrawal on April 14, 2015 at 3:21pm

ज़बरदस्त ग़ज़ल .. सुन्दर शब्दावली और सुन्दर भाव 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 14, 2015 at 11:20am

हा हा हा..

मुझे अच्छी तरह से भान है, आदरणीया राजेश कुमारी जी, कि आप किसी कहे का अर्थ यदि खूब स्पष्ट न हो तो उसके कैसे-कैसे इन्नोवेटिव अर्थ निकाल लिया करती हैं .. :-))

इस टिप्पणी के माध्यम से मैं सभी के साथ साझा कर रहा हूँ, कि, फुलकी (गोलगप्पे) के ऊपर लिखे मेरे सवैया छन्द को आप बहुत दिनों तक किसी नवयुवती पर लिखी रचना समझती रही थीं.. ...  हा हा हा..

अब मेरी टिप्पणी पर -

आदरणीय गिरिराज भाईजी के प्रश्न में मेरे कहे का भी आशय निहित है. उसके प्रत्युत्तर में आपने जो कुछ कहा है उसे मैं देख रहा हूँ. वस्तुतः झुकने को आंचलिक भाषाओं में नँवना या नमना कहते हैं. नियना जिससे निये  आपने निकाला है,  वह उचित प्रतीत नहीं होता. अगर ऐसा है भी तो ऐसा कोई शब्द इतना अधिक क्षेत्रीय होगा या है, कि उसका प्रयोग अत्यंत विशिष्ट अवसरों या कारणों पर ही किया जा सकता है. ऐसे कई उदाहरण साहित्य में हैं भी. लेकिन सामान्यतया किसी अति विशिष्ट आंचलिक शब्द के सामान्य प्रयोग से बचना चाहिये.

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 14, 2015 at 8:47am

आ० गिरिराज जी ,ग़ज़ल को आपका आशीष मिला ग़ज़ल मुकम्मल हुई ,निय शब्द हमारे यहाँ झुकने के अर्थ में बहुत प्रचलित है जैसे कितना झुकेगा तो उसे कितना नियेगा कहते हैं बहुत बार गाँव में सुना है लिखते हुए वही याद आ गया |बहुत बहुत आभार आपका 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 14, 2015 at 8:43am

मिथिलेश भैया ,आपको ये ग़ज़ल पसंद आई दिल से आभारी हूँ लिखना सार्थक हुआ |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 14, 2015 at 8:34am

आदरणीया राजेश जी , छोटी बह्र मे खूब सूरत ग़ज़ल हुई है , तहे दिल से मुबारकबाद कुबूल करें ॥

निये जा  -- को समझ नहीं पाया , शायद क्षेत्रिय भाषा का कोई शब्द है , शब्दकोष मे भी नहीं मिला  ?

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 14, 2015 at 7:23am
आदरणीया राजेश दीदी छोटी बह्र की मुकम्मल ग़ज़ल हुई सभी अशआर क्या खूब निकाले है। दाद दिल से।

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