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सुन्दर हज़ल , पर मैं आपकी इस लाइन से असहमत हूं ," कि इस मय की ऐसी ता्सीरहै दोस्तों
, शेर भी बद हहासी में मेमना हो जायेगा" इसेस मेरे हिसाब से यूं होना चाहिये,
"मेमना भी बेधड़क हां शे'र सा हो जायेगा
नशा वही जो इकबार चढके उतरे ना कभी।
सब रस निरस जब इश्के-खुदा हो जायेगा।।
बस अब इस नशे का ही इंतेज़ार है साहब .... अच्छी ग़ज़ल है बहुत ...
"OBO सदस्या मोहतरमा मुमताज अज़ीज़ नाज़ा" की ग़ज़ल जो उन्होंने व्यस्तता के कारण मुझे पोस्ट करने हेतु भेजी है ...
सच में दिमाग का रायता हो गया :) यानी गज़ल कामयाब रही
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