(गणेश का कथन पार्वती से )
देखो मातु, शारदा है आपकी विचित्र अति
मेरी लेखनी का अंग-भंग कर देती है I
चिन्तना में डूबता हूँ आत्मलीन होके जब
शुण्ड को हिला के मुझे तंग कर देती है I
काटती हठीली बात-बात पर मेरी बात
देती नए तर्क मुझे दंग कर देती है I
किन्तु यही वसुधा के कीट कवियों की सारी
काव्य-सर्जना को रस-रंग कर देती है I
(गणेश का कथन शिव से )
देखो तात, भ्रातृजा ये आपकी विचित्र अति
मुझ विघ्न हर को सविघ्न कर देती है I
होती है अरुचि मुझे मिष्ट मोदको से जब
मन में मधुर ऐसे भाव भर देती है I
कौंध उठती है कोई कल्पना कलित तब
वीणा छेड़ रागिनी छबीली छर देती है I
खाने भी न देती और लिखने भी देती नहीं
किन्तु कीट मानव को सुकवि कर देती है I
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
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बहुत ही सुन्दर रचना! मन आह्लादित हो गया पढ़कर! बार-बार पढने को मजबूर हूँ! आपको बहुत-बहुत बधाई!
आदरणीय ब्रिजेश जी \
आपका स्नेह शिरोधार्य है i
बहुत सुन्दर ...मनमुग्ध कर दिया इस वार्तालाप ने बहुत बहुत बधाई आपको जय गणपति
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