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मैं आज चिड़ी सी उड़ती फिरती हूँ,

खुद चढ़ अंबर का व्यास नापती हूँ ,

कर दिया किसी ने झन-झन मेरे पर को,

मैं आँखों के दो दीप लिए फिरती हूँ ।

मैं प्रेम-सुधा रस पान किया करती हूँ ,

मैं कभी ना खुद का ध्यान किया करती हूँ ,

जग जाकर पूछे उनसे जो अपनी कहते ,

मैं अपने दिल का गीत सुना करती हूँ ,

मैं सुर- बाला सा, उन्माद लिए फिरती हूँ ,

मैं नए -नए उपहार लिए फिरती हूँ ,

यह मंगलदाई, संसार ना मुझ को भाता ,

मैं खुद की दुनियाँ साथ लिए फिरती हूँ ।

मैं दिल की अग्नि में निस दिन जलती हूँ ,

सुख- दुख की बेपरवाही में जीती हूँ ,

दुनियाँ से जाने को कई नाव बनाई जाएँगी ,

मैं खुद के धारों में कल- कल बहती फिरती हूँ ।

मैं खुद के रोने में गीत लिखा करती हूँ ,

मीठी वाणी में निज आग लिए फिरती हूँ ,

हो जिस पर मधुकर का गान निछावर ,

मैं खुद का सूखा सा फूल लिए फिरती हूँ ।

मैं बिना गेरुआ वस्त्र बनी सन्यासी ,

ना भाती मुझको जग की आपाधापी,

कर प्रयत्न थके सब ,क्या सत्य किसी ने जाना ?

मैं जग की धुँधली आशाओं से थक हारी ।

कल्पना मिश्रा बाजपेई

मौलिक व अप्रकाशित

 

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Comment

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Comment by kalpna mishra bajpai on March 6, 2014 at 2:40pm

आदरणीया प्राची मैडम !आप की टिप्पणी की प्रतीक्षा रहती है मुझे। इस रचना पर आप की नजरें इनायत करने के लिए तहे दिल से

शुक्रिया ।सादर !!!!!!!!!!!!!!!!!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 6, 2014 at 12:23pm

स्वयं को समझने की और उसे व्यक्त करने की सुन्दर चेष्टा हुई है 

हार्दिक शुभकामनाएं 

Comment by kalpna mishra bajpai on March 2, 2014 at 2:08pm

सर आप का सुझाव सिर -आँखों पार आभार आप का /सादर

प्लीज प्रवाह को समझाने का कष्ट कीजियगा अति दया होगी सर । प्रतीछा रहेगी ....

Comment by बृजेश नीरज on March 2, 2014 at 1:59pm

बहुत ही सुन्दर रचना है! आपको हार्दिक बधाई!

कृपया प्रवाह के हिसाब से इस रचना को एक बार फिर से देख लें!

सादर!

कृपया ध्यान दे...

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