For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

आँखों देखी 7 – बर्फ़ की गहरी खाई में

                                                      आँखों देखी 7 – बर्फ़ की गहरी खाई में 
         दक्षिण गंगोत्री स्टेशन के अंदर रहते हुए एक डरावना ख़्याल हम सबको अक़्सर परेशान करता था. हम सभी जानते थे कि पूरा स्टेशन लकड़ी (प्लाईवुड) से बना है और इनसुलेशन के लिये दीवारों के दो पर्तों के बीच पी.यू.फोम भरा हुआ है जो ज्वलनशील पदार्थ होता है. यदि किसी कारणवश स्टेशन के अंदर आग लगी तो चिमनीनुमा एकमात्र प्रवेश/निकास मार्ग से होकर बाहर निकलना शायद असम्भव हो जाए. यदि बाहर निकल भी आए तो ठण्ड से जम जाने के कारण मौत को गले लगाना पड़ेगा.
        मुझे नहीं मालूम कि भारत सरकार से इस बारे में कोई दिशा-निर्देश आया था या नहीं लेकिन एक दिन दलनेता और वरिष्ठ सदस्यों ने सभा बुलाकर सबको सचेत किया कि स्टेशन को हर हालत में आग से बचाना होगा. आग लगने की स्थिति में उससे निबटने के लिये हम लोगों को नियमित रूप से अग्नि-निरोधक उपायों यथा fire extinguisher आदि के उपयोग से परिचित कराया जाता था. ऐसी दुर्घटना यदि घट ही जाए तो क्या करना उचित होगा और क्या नहीं इस बारे में अभियान के शुरु से ही हमें शिक्षित किया जा रहा था. लेकिन यह पहला मौका था कि उस बन्द और छोटे से स्टेशन के अंदर हमें आग लगने की अवस्था में अपनी असहायता का अहसास होने लगा. सभा में इस विषय पर विस्तार से चर्चा हुई कि यदि दुर्घटना घट ही गयी तो हम क्या करेंगे. एक महत्वपूर्ण निर्णय यह लिया गया था कि ऐसी हालत में हम स्टेशन के मुख्य भवन से लगभग दो सौ मीटर की दूरी पर स्थित गैराज में आश्रय लेंगे जहाँ हमारी गाड़ियाँ (polar vehicles) और स्नो-स्कूटर आदि रखे गये थे. किसी काल्पनिक लेकिन संभाव्य आपदा से जूझने के लिये गैराज के अंदर बेतार संचार व्यवस्था, टेलीफ़ोन और भोजन की व्यवस्था सुनिश्चित की गयी. साथ ही आपातकालीन व्यवहार हेतु कुछ अंटार्कटिक सूट, कपड़े और आवश्यक दवाओं का भण्डार बनाया गया.
        इस तैयारी के बाद आवश्यक था कि गैराज में दो-चार रात रुककर देख लिया जाये कि कैसी समस्याओं का सामना हमें करना पड़ सकता है क्योंकि उसके अंदर मुख्य स्टेशन भवन की तरह न पानी की व्यवस्था थी और न ही हीटर की. गैराज भी पूरी तरह बर्फ़ में धँसा हुआ था. अत: यह तय हुआ कि तीन-चार सदस्यों को मिलाकर लगभग चार छोटे-छोटे दल बनाये जायेंगे जो बारी-बारी से गैराज में रात बिताएँगे. सभी के अनुभव और सुझाव के आधार पर किसी भी आकस्मिक परिस्थिति में गैराज में हम लोगों के रहने की क्या न्यूनतम व्यवस्था होनी चाहिये, इस विषय पर अंतिम निर्णय लिया जायेगा.
        इतने दिनों बाद मुझे स्पष्ट याद नहीं कि दलनेता ने पहली टोली को भेजने के लिये कोई दिन निर्धारित किया था या नहीं----सम्भवत: नहीं. बस, एक दिन मौसम अचानक ख़राब हुआ. सभी मशीनी आंकड़े तूफ़ान के एक लम्बे दौर की ओर इशारा कर रहे थे. आदेश हुआ कि पहली टोली उसी शाम (केवल घड़ी के समयानुसार – याद रखना होगा कि उन दिनों दो महीने की रात का समय चल रहा था) गैराज के लिये प्रस्थान करेगी. उस टोली में मैं भी था.
        शाम को जल्दी खाना खाकर हम चार लोग टॉर्च तथा वॉकी-टॉकी से लैस होकर बाहर निकलने को तैयार हुए. मौसम विज्ञान संबंधी प्रयोगशाला में हवा की गति दर्शाते हुए यंत्र की ओर नज़र उठाकर देखा तो चौंकना पड़ा. बाहर 110 किलोमीटर प्रति घंटे के वेग से बर्फ़ का तूफ़ान अर्थात Blizzard चल रहा था. हम लोगों ने एक दूसरे को पर्वतारोहण वाली रस्सी से बाँधा और एक के पीछे एक चिमनीनुमा रास्ते से स्टेशन के बाहर आए. सबसे पहले निकलने वाले भारतीय सेना के एक अधिकारी थे. फिर वैज्ञानिक संस्था से हम दो लोग और अंत में भारतीय नौसेना के एक संचार सेवा अधिकारी. मुझे याद है, जैसे ही मैंने स्टेशन के बाहर क़दम रखा, तेज़ हवा ने मुझे ज़मीन से उठाकर पटक दिया और एक सेकंड से भी कम समय में बर्फ़ के लाखों नुकीले कण मेरे अंटार्कटिक सूट के अंदर घुस गये. मेरा स्नो-गॉगल तो ढक ही चुका था, बर्फ़ के कण उसके पीछे मेरे नित्य व्यवहार के चश्मे पर भी छा गये थे. मुँह के ऊपर से मुखौटा (mask) हट जाने के कारण बर्फ़ मेरे चेहरे पर भी आक्रमण कर रहा था. लेकिन सबसे तकलीफ़देह बात थी मेरे नाक में बर्फ़ का घुस जाना. मेरा दम घुटने लगा था. जितनी बार उठने की कोशिश करूँ नरम बर्फ़ में पैर धँस जाने की वजह से सीधे खड़ा ही नहीं हो पा रहा था. कुछ पल की ही बात थी. मेरे साथियों ने रस्सी में खिंचाव महसूस करके मुझे तुरंत सहारा दिया. हम लोग स्टेशन के ठीक बाहर थे. मैं बुरी तरह हाँफ रहा था लेकिन सबने मुझे स्टेशन के अंदर वापस न जाने की सलाह देते हुए आगे मिशन पर जाने के लिये प्रोत्साहित किया. कोई बात नहीं हुई थी क्योंकि उस भयंकर तूफ़ान के बीच कुछ कहना या किसी को सुनना असम्भव था. केवल इशारे से ही विचारों का आदान-प्रदान हुआ. बहुत नेक सलाह दी थी मेरे बहादुर साथियों ने क्योंकि मेरे या किसी के वापस जाने से दूसरों को नकारात्मक संकेत मिलता जो अभियान के उद्देश्यों के हित में कदापि नहीं होता.
        दक्षिण गंगोत्री स्टेशन से गैराज तक रस्सी पहले ही किसी समय बाँध दी गयी थी. वह तेज़ हवा में एक वक्र (curve) बनाते हुए उड़ रही थी. फलत: अंधेरे और बर्फ़ के कारण हुए white out के सम्मिलित अवस्था में उस रस्सी को ढूँढ़कर पकड़ लेने में हमें थोड़ा समय लग गया. हम सभी लोगों के कपड़े तथा जूतों के अंदर बर्फ़ घुस गया था और तूफ़ान से जूझते हुए हर पल हमारी थकावट बढ़ती जा रही थी. अंतत: कुल दो सौ मीटर की दूरी लगभग एक घंटे में तय करके हम गैराज में पहुँचे. वहाँ सबने कपड़े बदले, बदन सुखाया और गरम चॉकोलेट पीकर अपने को स्वस्थ किया. जब तक हम लोगों के गैराज में पहुँचने की खबर स्टेशन को नहीं मिली थी वहाँ हमारे अन्य सभी साथी बहुत चिंतित थे. ख़ैर....शरीर को कुछ राहत तो अवश्य मिली गैराज के अंदर पहुँचकर लेकिन बेहद ठण्ड (तापमान माईनस 35 डिग्री सेल्सियस) के चलते लगभग बैठे हुए ही हम लोगों ने पहली रात गुज़ारी. धीरे-धीरे शरीर अभ्यस्त होता गया और अगले दिन दोपहर तक विश्वास होने लगा कि लम्बे हैं. आख़िर मुश्किल हालात में इंसान की जिजीविषा स्वत: बढ़ जाती है.
        इस अनुभव ने मेरे जीवन के प्रति दृष्टिकोण को अचानक बहुत परिपक्वता प्रदान किया. मेरी सोच, मेरी कल्पनाएँ प्रकृति के साथ घुलकर नए धरातल पर विचरण करने लगीं और एक, अभी तक अनास्वादित, आनंद की रसधार में मैं बह चला.
        बर्फ़ीले तूफ़ान में फँसकर जो अनुभव हुआ उससे मेरा आत्मविश्वास और मनोबल दोनों बढ़े. उक्त घटना के बाद कुछ ही दिन बीते थे कि एक बार फिर स्टेशन ड्यूटी के समय मुझे नया अनुभव हुआ. इस बार भारतीय सेना के एक सूबेदार मेजर मेरे साथ ड्यूटी कर रहे थे. रात में हम दोनों जब कूड़े का बैग लेकर बाहर निकले तो हल्की हवा चल रही थी. हमारे मौसमविद साथी सदस्य ने हमें चेतावनी दी थी कि कुछ घंटे में मौसम ख़राब होने वाला था. इसलिये आवश्यक था बाहर का काम जल्दी समाप्त कर हम स्टेशन के अंदर वापस आ जाएँ. हमने सभी कूड़ा एक स्लेज पर रखा और उसे खींचते हुए कूड़ा डालने के लिये निर्दिष्ट स्थान पर ले गये. वहाँ हमने कूड़ा गड्ढे में नहीं गिराया और स्लेज सहित वहीं छोड़ दिया. ऐसा करना पड़ा क्योंकि स्लेज को लेकर हवा की विपरीत दिशा में चलना बहुत मुश्किल का काम था और हमें स्टेशन वापस जाने के लिये हवा के विरुद्ध ही जाना था. यदि स्लेज खाली कर दिया गया होता तो उसके उड़कर बहुत दूर चले जाने का अंदेशा था. हमने स्लेज के ऊपर से एक ice axe उठाया और बिना समय गवाँए वापस मुड़ लिये. हालांकि स्टेशन क़रीब 400 मीटर की दूरी पर साफ़ नज़र आ रहा था, हम लोगों के अब तक के अनुभव ने इतना सिखा ही दिया था कि मौसम की चेतावनी को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिये. अब तक हवा का रूख बदल गया था और बर्फ़ का पाऊडर ज़मीन से ऊपर उठने लगा था. हम दोनों ने कसकर एक दूसरे का हाथ पकड़ा और लगभग 50 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ़्तार से चलने वाली हवा को अपने चेहरे और सीने पर लेकर स्टेशन की ओर चलने लगे. हमें स्टेशन का छत अभी भी दिख रहा था लेकिन सतह से क़रीब ढाई-तीन फुट की ऊँचाई तक बर्फ़ का पाऊडर उड़ने के कारण कहाँ हम पैर रख रहे हैं इसका कोई आभास नहीं था. अंटार्कटिका के निर्जन, सपाट बर्फ़ीली सतह पर जिसके लगभग 500 फ़ीट नीचे समुद्र मचल रहा था, हम नि:संकोच और निर्भय होकर जितना हो सके तेज़ गति से अपने आशियाने की ओर बढ़ रहे थे जिससे कि स्टेशन हमारी दृष्टि से ओझल होने से पहले हम वहाँ पहुँच जाएँ. जल्दी से जाने की आकुलता में हम भूल गये थे कि जहाँ स्टेशन का जेनरेटर ब्लॉक था उसके पश्चिम की ओर बर्फ़ में एक बड़ा गड्ढा था जिसे अच्छे मौसम के समय भी हम बहुत दूर रखकर ही चलते थे. लेकिन उस रात घुटनों के नीचे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. हम कैसे सीधे उसी गड्ढे की ओर चलते चले गये नहीं पता. अचानक जब दोनों उसमें जा गिरे तो ख़्याल आया. वह लगभग 12-13 फ़ीट गहरा था लेकिन बहुत फैला हुआ नहीं था. मोटे सूट से लैस होने के कारण सौभाग्य से विशेष चोट नहीं लगी हममें से किसी को. हमारा हाथ इस झटके से छूट गया था. हमें कुछ पल लगे अपने को सँभालने में. फिर समझ आया कि हम कहाँ गिरे हैं. हम दोनों ने पर्वातारोहण की शिक्षा पायी हुई थी जो उस घड़ी काम आयी. हाथ से छूटा हुआ ice axe उठाया गया और सख़्त बर्फ़ की दीवार पर बारी-बारी प्रहार करते हुए हमने सीढ़ी बनायी. एक घंटे के कठोर परिश्रम के बाद हम गड्ढे से बाहर निकले. तूफ़ान तेज़ हो गया था लेकिन हम स्टेशन के नज़दीक थे और हमें वहाँ के बाहर की लाईट साफ़ दिख रही थी. थककर चूर लेकिन आत्मविश्वास से भरपूर लड़खड़ाते क़दमों से जब स्टेशन के अंदर पहुँचे तो शायद ही किसी को आभास था कि हमारे ऊपर अभी-अभी क्या बीती थी.
        फिर मौसम ऐसा ख़राब हुआ कि तीन-चार दिन तक हम स्टेशन से बाहर ही नहीं निकल पाये. स्टेशन के बाहर और अंदर अंटार्कटिका नित्य नए रूप में अपना अपार सौंदर्य और रहस्य लेकर हमारे सामने प्रकट हो रहा था.

 

(मौलिक तथा अप्रकाशित सत्य घटना)

Views: 1038

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by vijay nikore on January 2, 2014 at 8:45am

दिसम्बर में ओ बी ओ पर कम आ पाने के कारण इस आलेख पर आने में देर हो गई, परन्तु आज इसे ठहरा कर, बहुत चाव के साथ पढ़ा, और आनन्दित हुआ। पता नहीं अंटार्कटिका कभी जा पाऊँ या नहीं, पर आपके संस्मरण के हर भाग के संग मन में अंटार्कटिका की तस्वीर पूरी होती जा रही है। ऐसी प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 29, 2013 at 2:23am

आदरणीय बृजेश जी, आप बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाने वाले एक विशिष्ट कलाकार हैं. मेरे इन संस्मरणों के श्रृंखला रूप में आने के पीछे आपका बहुत बड़ा योगदान है यह मैं मुक्तकंठ से कह सकता हूँ. यदि बाद में पुस्तकाकार में ये प्रकाशित हों तो उसका भी श्रेय बहुत हद तक आपको ही जाएगा. आपका और पूरे ओ.बी.ओ. का साथ बना रहेगा यह विश्वास है मुझे. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 29, 2013 at 2:15am

वाह वाह शुभ्रांशु जी...मज़ा आ गया आपकी टिप्पणी पढ़कर. सादर आभार कहना कम होगा. अब मेरे वश में नहीं...यदि होता तो आप सभी लोगों को मैं अंटार्कटिका अवश्य ले जाता. ऐसे ही इस श्रृंखला को पूरी करने में मेरा मनोबल बढ़ाते रहिये, मैं ऋणी रहूंगा.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 29, 2013 at 2:07am

आदरणीय सौरभ जी, "क्या बात है" तो मुझे कहना चाहिए! ऐसे अद्भुत और ओजस्वी टिप्पणी के लिये. आप जिस गूढ़ आग्रह से मेरे संस्मरण पढ़ रहे हैं वह अपने आप में मेरे लिये बहु मूल्यवान हैं.

पता नहीं कैसे कुछ ग़लतियाँ रह गईं! // धीरे-धीरे शरीर अभ्यस्त होता गया और अगले दिन दोपहर तक विश्वास होने लगा कि लम्बे हैं.// के स्थान पर मैंने लिखना चाहा था धीरे-धीरे शरीर अभ्यस्त होता गया और अगले दिन दोपहर तक विश्वास होने लगा कि लम्बे समय तक न सही यदि ऐसी आपत्ति आ पड़ी तो गैराज में कुछ दिन बिताना असम्भव नहीं.

और जो भी ग़लती है उन्हें अगली बार कहीं भी इस संस्मरण को प्रकाशित करने के पहले ठीक कर लूंगा. आपके सचेत और निविष्ट पाठन के लिये मैं आपका ऋणी रहूंगा. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 29, 2013 at 1:40am

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन जी, हार्दिक आभार आपकी प्रेरणादायक टिप्पणी के लिये.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 29, 2013 at 1:38am

प्रिय ब्रह्मचारी जी, मित्रों की शुभकामनाएँ ईश्वर के आशीर्वाद समान होती हैं. आपको इस मंच पर मेरी रचना पर टिप्पणी करते हुए देखना मेरे-आपके पिछले 45 वर्ष के सम्पर्क में एक नया मोड़ है. देखा जाए ये शुभकामनाएँ मुझे कहाँ ले जाती हैं!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 29, 2013 at 1:34am

आदरणीय गिरिराज जी, आप लोगों का स्नेह बना रहे यही कामना है. बहुत ही सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिये आभार.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 29, 2013 at 1:31am

आदरणीया महिमा जी, आप सभी के सोच्छ्वास प्रतिक्रिया से मन तृप्त हुआ. सादर आभार.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 29, 2013 at 1:29am

आदरणीय शिज्जु शकूर जी, ऐसे ही मेरा उत्साह बनाए रखें. आभार.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 29, 2013 at 1:27am

आदरणीय रक्ताले साहब, आपको लेख पसंद आया, मेरा लिखना सार्थक हुआ. आभार.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Admin posted discussions
20 hours ago
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
20 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . नजर
"आदरणीय सुशील सरनाजी, आपके नजर परक दोहे पठनीय हैं. आपने दृष्टि (नजर) को आधार बना कर अच्छे दोहे…"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"प्रस्तुति के अनुमोदन और उत्साहवर्द्धन के लिए आपका आभार, आदरणीय गिरिराज भाईजी. "
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी posted a blog post

ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी

२१२२       २१२२        २१२२   औपचारिकता न खा जाये सरलता********************************ये अँधेरा,…See More
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा दशम्. . . . . गुरु

दोहा दशम्. . . . गुरुशिक्षक शिल्पी आज को, देता नव आकार । नव युग के हर स्वप्न को, करता वह साकार…See More
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post बाल बच्चो को आँगन मिले सोचकर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल आपको अच्छी लगी यह मेरे लिए हर्ष का विषय है। स्नेह के लिए…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post लौटा सफ़र से आज ही, अपना ज़मीर है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति,उत्साहवर्धन और स्नेह के लिए आभार। आपका मार्गदर्शन…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"आदरणीय सौरभ भाई , ' गाली ' जैसी कठिन रदीफ़ को आपने जिस खूबसूरती से निभाया है , काबिले…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . नजर
"आदरणीय सुशील भाई , अच्छे दोहों की रचना की है आपने , हार्दिक बधाई स्वीकार करें "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post बाल बच्चो को आँगन मिले सोचकर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आदरणीय लक्ष्मण भाई , बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है , दिल से बधाई स्वीकार करें "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post लौटा सफ़र से आज ही, अपना ज़मीर है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आदरणीय लक्ष्मण भाई , खूब सूरत मतल्ले के साथ , अच्छी ग़ज़ल कही है , हार्दिक  बधाई स्वीकार…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service