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रे मन ! दृढ़ता का बीज बो,
आज कठोर होता चल तू।
जीवन है एक कठोर संग्राम,
इसे विजित कर आगे निकल तू।
क्या रखा है इस जगत में,
यह तो केवल छाया-माया है।
क्या रखा है इस जीवन में,
इसने तो केवल भरमाया है।
तेरा अपना कुछ भी नहीं है,
केवल भ्रम की एक छाया है।
जब छोड़कर जाना है सब,
तो क्यों तू इतना इतराया है।
जब झूठे हैं ये सारे  बंधन,
क्यों  इनमें स्वयं को रमाया है।
फिर तोड़ दे तू ये सारे बंधन,
इनके भ्रम से बाहर निकल तू।
रे मन ! दृढ़ता का बीज बो,
आज कठोर होता चल तू।
कब था वो तेरा साथी,
जिस पर तूने स्नेह लुटाया।
कब था वो तेरा अपना,
जिस पर तूने स्वयं को मिटाया।
कब थे वो परिजन तेरे,
जिनके लिए तूने कष्ट उठाया।
धन-वैभव सब यहीं छूटेगा,
कौन इन्हें संग ले जा पाया।
क्षणिक हैं ये सांसारिक बंधन,
जिनके मोह में तू भरमाया।
तेरी मृत्यु संग टूटेंगे ये सब,
अतः जीवन रहते ही संभल तू।
रे मन ! दृढ़ता का बीज बो,
आज कठोर होता चल तू।
जीवन है एक कठोर संग्राम,
इसे विजित कर आगे निकल तू।
'सावित्री राठौर'
१६ सितम्बर २०१३
[मौलिक एवं अप्रकाशित]

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Comment by Savitri Rathore on September 18, 2013 at 11:24pm

आदरणीय सुरेन्द्र जी,आपने रचना के मर्म को समझकर मेरी रचनाधर्मिता को और बढ़ावा दिया है,जिसके लिए मैं आपका आभार व्यक्त करती हूँ।

Comment by Savitri Rathore on September 18, 2013 at 11:21pm

रामशिरोमणि जी,आपका आभार !

Comment by Savitri Rathore on September 18, 2013 at 11:20pm

आदरणीय प्राची जी,आपकी अमूल्य राय हेतु मैं आपकी आभारी हूँ,और निकट भविष्य में मैं अपनी इन कमियों को दूर करने का प्रयास अवश्य करूँगी। वैसे मैं छंद बंधन से मुक्त रहना चाहती हूँ और मुक्त छंद में ही अपनी रचनाएँ लिखना चाहती हूँ।मेरी रचनाओं में निहित कमियों का एक बड़ा कारण,समयाभाव के कारण इस मंच का लाभ न उठा पाना भी था,किन्तु आगे से मैं इस कारण को दूर करने का प्रयास अवश्य करूँगी।

Comment by Savitri Rathore on September 18, 2013 at 11:13pm

आदरणीय विजयाश्री जी,आपने रचना के मर्म को समझकर मुझे उत्साहित किया है,जिसके लिए आपका धन्यवाद !

Comment by Savitri Rathore on September 18, 2013 at 11:11pm

आदरणीय विजय जी,आप जैसे पूजनीय व्यक्ति जब मेरी रचना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, तो मुझे प्रेरणा मिलती है,जिसके लिए मैं आपकी आभारी हूँ।

Comment by Savitri Rathore on September 18, 2013 at 11:08pm

जितेन्द्र जी,आपका बहुत- बहुत आभार !

Comment by Savitri Rathore on September 18, 2013 at 11:07pm

अन्नपूर्णा जी,आपकी सराहना हेतु आभारी हूँ।

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on September 18, 2013 at 7:30pm

जब छोड़कर जाना है सब,
तो क्यों तू इतना इतराया है।
जब झूठे हैं ये सारे  बंधन,
क्यों  इनमें स्वयं को रमाया है।
फिर तोड़ दे तू ये सारे बंधन,
इनके भ्रम से बाहर निकल तू।
रे मन ! दृढ़ता का बीज बो,
आज कठोर होता चल तू।

आदरणीया सावित्री जी ..सुन्दर रचना ... इस नश्वर संसार में ये सब जानते हुये भी काश कोई थोडा भी सुधरे मानव बने तो आनंद और आये
आभार
भ्रमर ५

Comment by ram shiromani pathak on September 18, 2013 at 7:24pm

सुंदर  रचना , बहुत बहुत बधाई आदरणीया सावित्री जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 18, 2013 at 5:19pm

आदरणीया सावित्री जी 

रचना के भाव बहुत सुन्दर हैं... पर अब आपकी अभिव्यक्तियों में गेयता व शिल्प की कमी खलने सी लगती है.. आखिर आप अब तक मंच पर प्रवाहित ज्ञान गंगा का लाभ उठाने से वंचित क्यों ?

आपके सद्प्रयासों की अपेक्षा है और सुगठित रचनाओं की प्रतीक्षा.

सादर.

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