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प्रेम - एक कुंडली छंद

मदिरा मत समझो मुझे , नहीं नशे की चीज़ 
एक दीवानी प्रेम की , प्रेम से जाओ भीज 

प्रेम से जाओ भीज , नहीं मैं साकी बाला   
नैन मेरे संगीत , नहीं ये मधु की शाला 
आलिंगन हो मीत , मेरा नशा है गहरा 
कह सागर कविराय, नहीं कोई ये मदिरा
.
मौलिक एवं अप्रकाशित
आशीष ( सागर सुमन ) 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 18, 2013 at 4:44pm

आ० आशीष जी 

कुंडलिया छंद प्रस्तुति के लिए बधाई ..पर छंद रचनाओं में मात्राओं के प्रति सजग रहना आवश्यक ही होता है.. आ० अरुण शर्मा जी के इंगितों पर गौर करें.

सादर. 

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 18, 2013 at 11:17am

आदरणीय आशीष भाई कुण्डलिया छंद के भाव बेहद अच्छे हैं किन्तु मात्रा पर आपने ध्यान नहीं दिया दोहा पद के तृतीय और चतुर्थ चरण में मात्रा अधिक हो रही है साथ ही साथ रोला के चरणों में भी मात्राएँ ठीक नहीं हैं कृपया एक बार पुनः देख लें. प्रयास हेतु बधाई स्वीकारें.

Comment by annapurna bajpai on September 17, 2013 at 11:31pm

आदरणीय आशीष जी सुंदर कुण्डलिया , बहुत बधाई आपको ।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 17, 2013 at 12:14am

बहुत सुंदर कुंडली छंद , बधाई आदरणीय आशीष जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 16, 2013 at 5:54pm

आदरणीय आशीष भाई , प्रेम की परिभाषा बयान करती आपकी कुंडलिया सुन्दर लगी !! बधाई !!

कृपया ध्यान दे...

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