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ओबीओ लाइव महाउत्सव अंक 33 की सभी रचनाएँ (Part -2)

ओबीओ लाइव महाउत्सव अंक 33 की सभी रचनाएँ (Part -1)

आगे .. .   Part - 2.. .

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14.श्री अभिषेक कुमार झा जी 

(1)

देख तेरा दुःसाहस मानव,

प्रकृति माँ भी आज थर्राई है।
तेरे करमों की करनी से,
आज घड़ी प्रलय की आई है।
बना जलाशय पूरा प्रदेश,
भारी विपदा आज आई है।
तूने कहा जिसे विकास है,
प्रलय उसी ने ही मचाई है।
पर्वतराज के तू सीने पे,
क्यूँ चढ़ उत्पात मचाई है?
भर वेदना संवेदना से,
मंदाकनी नोर बहाई है।
तोड़ पहाड़ों, काट वृक्षों को,
बस भवन-भवन ही बनाई है।
नियम प्रकृति का और तोड़कर,
क्यूँ अपनी मर्ज़ी चलाई है?
ईश्वर का न दोष ये मानव,
ये तेरे कर्मों से आई है।
जगा चेतना अपनी मानव,
अब संभलने की बारी है।

 

(2)

१.
हे प्रकृति माँ
हम सब हैं नादाँ
क्षमा करना
२.
हे रे मानव
मत बन दानव
ये धरती माँ
३.
कर निर्माण
रख,प्रकृति ध्यान
जग कल्याn

 ______________________________________________________

 

15.सुश्री शशि पुरवार जी 

(1)हाइकू --

जल जीवन

प्रकृति औ मानव

अटूट रिश्ता

जगजननी

धरती की पुकार

वृक्षारोपण

मानुष काटे

धरा का हर अंग

मिटते गाँव .

पहाड़ो तक

पंहुचा प्रदूषण

प्रलयंकारी

केदारनाथ

बेबस जगन्नाथ

मानवी भूल

काले धुँए से

चाँद पर चरण

काला गरल .

जलजला सा 

विक्षिप्त है पहाड़

मौन रुदन

कम्पित धरा

विषैली पोलिथिन

मनुज फेकें

सिंधु गरजे

विध्वंश के निशान

अस्तित्व मिटा .

१०

अप्रतिम है

प्रकृति का सौन्दर्य

चिटके गुल .

(2)

कहीं पर कुदरत खेला करती 
थी खुले मैदान में 
हमने उसको सिमट दिया
आलिशान मकान में
खुद शांति पाने को 
उसकी कर दी भंग 
समझ जा ओ मूर्ख बन्दे 
सुधार ले अपने ढंग 
उसने अब अपना मैदान 
वापिस पा लिया 
जो था तेरा तुझको है 
लौटा दिया 
मत कर दोहन उसका 
रुक जा ओ इन्सान 
कुदरत खेलेगी फिर लीला 
कर देगी सब श्मशान 
उसका उसको लौटा दे
वृक्षारोपण कर हरियाली ला 
छोड़ दे झूठे लालच बन्दे 
अपने जीवन में खुशहाली ला

________________________________________________________

16.श्री अलबेला खत्री जी 

प्रकृति में मानव की माता का आभास है
प्रकृति में प्रभु के सृजन की सुवास है

प्रकृति के आँचल में अमृत के धारे हैं 
नदी-नहरों में इसी दूध के फौव्वारे हैं

प्राकृतिक ममता की मीठी-मीठी छाँव में 
झांझर सी बजती है पवन के पाँव में

छोटे बड़े ऊँचे नीचे सभी तुझे प्यारे माँ
हम सारे मानव तेरी आँखों के तारे माँ

भेद-भाव नहीं करती किसी के साथ रे
सभी के सरों पे तेरा एक जैसा हाथ रे

गैन्दे में गुलाब में चमेली में चिनार में
पीपल बबूल नीम आम देवदार में

पत्ते - पत्ते में भरा है रंग तेरे प्यार का
तेरे मुस्कुराने से है मौसम बहार का

झरनों में माता तेरी ममता का जल है
सागरों की लहरों में तेरी हलचल है

वादियों में माता तेरे रूप का नज़ारा है
कलियों का खिलखिलाना तेरा ही इशारा है

तूने जो दिया है वो दिया है बेहिसाब माँ
हुआ है न होगा कभी, तोहरा जवाब माँ

तेरी महिमा का मैया नहीं कोई पार रे
तेरी गोद में खेले हैं सारे अवतार रे

सोना चाँदी ताम्बा लोहा कांसी की तू खान माँ
हीरों- पन्नों का दिया है तूने वरदान माँ

तेरे ही क़रम से हैं सारे पकवान माँ
कैसे हम चुकाएंगे तेरे एहसान माँ

तेरी धानी चूनर की शान है निराली रे
दशों ही दिशाओं में फैली है हरियाली रे

केसर और चन्दन की देह में जो बन्द है
मैया तेरी काया की ही पावन सुगन्ध है

यीशु पे मोहम्मद पे मीरा पे कबीर पे
नानक पे बुद्ध पे दया पे महावीर पे

सभी महापुरुषों पे तेरे उपकार माँ
सभी ने पाया है तेरे आँचल का प्यार माँ

पन्छियों के चहचहाने में है तेरी आरती
भोर में हवाएं तेरा आँगन बुहारती

सभी के लबों पे माता तेरा गुणगान है
जगत जननी तू महान है महान है

वे जो तेरी काया पे कुल्हाडियाँ चलाते हैं
हरे भरे जंगलों को सहरा बनाते हैं

ऐसे शैतानों पे भी न आया तुझे क्रोध माँ
तूने नहीं किया किसी चोट का विरोध माँ

मद्धम पड़े न कभी आभा तेरे तन की
लगे न नज़र तुझे किसी दुश्मन की

मालिक से मांगते हैं यही दिन रात माँ
यूँ ही हँसती गाती रहे सारी कायनात माँ

चम्बे की तराइयों में तू ही मुस्कुराती है
हिमालय की चोटियों में तू ही खिलखिलाती है

तुझ जैसा जग में न दानी कोई दूजा रे
मैया तेरे चरणों की करें हम पूजा रे

बच्चे-बच्ची बूढे-बूढी हों या छोरे-छोरियां
सभी को सुनाई देती माता तेरी लोरियां

तेरे अधरों से कान्हा मुरली बजाता है
तुझे देखने से माता वो भी याद आता है

तुझ से ही जन्मे हैं ,तुझी में समायेंगे
तुझ से बिछुड़ के मानव कहाँ जायेंगे

तेरी गोद सा सहारा कहाँ कोई और माँ
तेरे बिना मानव को कहाँ कोई ठौर माँ

ग़ालिब की ग़ज़लें ,खैयाम की रुबाइयाँ
पद्य सूरदास के व तुलसी की चौपाइयां

तेरी प्रेरणा से ही तो रचे सारे ग्रन्थ हैं
तूने जगमगाया माता साहित्य का पन्थ है

मानव की मिट्टी में मिलाओ अब प्यार माँ 
जल रहा है नफ़रतों में आज संसार माँ

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17.श्री सुभाष वर्मा जी 

(1)

जहाँ अंकुर निकलना था वहां पर ईंट रक्खी है 
मिलों के खौफ़ से ख़ामोश बैठी हाथ-चक्की है 
बिगड़ती जा रही है दिन-व्-दिन तस्वीर कुदरत की 
ख़ुदा जाने ज़माना कर रहा कैसी तरक्की है ?

 

(2)

 कज़ा की ज़ालिम सजा से पहले 
हयात तुमको निचोड़ देगी 
हिसाब जिस दिन करेगी कुदरत 
किताब खीसें निपोड़ देगी /

____________________________________________________________ 

18.सुश्री कल्पना बहुगुणा जी 

 

 ....प्रकृति  का आह्वान ....

रूठ जाने पर मेरे 
मनाने का वक़्त कहाँ .
आँखें नाम होने पर मेरे 
पोंछने का वक़्त कहाँ ..
शरीर पर घाव होने पर मेरे
 मरहम  लगाने का वक़्त कहाँ ..
हे मानव!  तुझे फुर्सत नहीं अभी 
थक कर  चूर होकर एक दिन 
शरण में मेरे तुझे  आना है .
गोद में सर रखकर मेरे 
विदा तुझे  यहाँ से होना है . 
    
हे मानव! अब भी  संभल जा
 समझ जा समय  के इस फेर को 
तब पछताए होत  क्या 
चुग गयी चिड़िया जब खेत को 
कर ले मनन अब भी वक़्त है 
आगाह कर रही कल्पना हर वक़्त है .
___________________________________________________________ 
19.श्री छोटू सिंह जी 

अतुकांत आधुनिक कविता

कितने ही जुल्म कितने ही सितम कर - कर भी हम हँसते हैं,
विकराल प्रकृति के दलदल में, सच जान - जान फंसते हैं,
जो श्रृष्टि के रखवाले है उनकी ही आड़ में देखो,
निजी प्रेरित उत्साहों में इस श्रृष्टि को ठगते हैं,
मानव अपनी करनी पर कहाँ क्षुब्द होता है,
हिलने लगती है धरती "जब आसमान रोता है"

......

यह मानव का अभिमान है की कुछभी बढ़ छू लेगा,
जब जो दिल में उसके आएगा वो वही शब्द बोलेगा,
इस अहंकार में मतवाला सच्चाई क्या समझेगा,
वो अपने स्वार्थ की कीमत भी इस धरती से ही लेगा,
मानव अपनी करनी पर कहाँ क्षुब्द होता है,
हिलने लगती है धरती "जब आसमान रोता है"

......

है रूप बड़ा ही सुन्दर जैसे यौवन की अंगराई,
चीरहरण करते इसके हमें कभी लाज ना आई,
ये भूल चुके हम मनाव में बस एक नेत्र होता है,
किन्तु श्रष्टि-स्वामी में यह एक शेष होता है,
मानव अपनी करनी पर कहाँ क्षुब्द होता है,
हिलने लगती है धरती "जब आसमान रोता है"

......

सरिताओं से पटी हुई यह वसुंधरा, नग-भूधर से घिरी हुई यह वसुंधरा,
हरे रंग में लिपटी अपनी वसुंधरा, श्वेत रंग सी पाक - साफ़ यह वसुंधरा,
जिसकी गोद में जीवन अमृत पाते थे, पंछी जिसके नभ में गीत सुनाते थे,
वो वसुंधरा अब फुट - फुट कर रोती है, बस एक जाती के कृत्य से चोटिल होती है,
मानव अपनी करनी पर कहाँ क्षुब्द होता है,
हिलने लगती है धरती "जब आसमान रोता है"

_________________________________________________________________ 

20.श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी जी 

 

घनाक्षरी छंद

प्रकृति मनुज नाता, शुरु से ही चला आता,
प्रकृति स्वरूप मातृ, ममता लुटाती है।
चंचल चपल बाल, हठ करे चांद मांग,
थाल नीर बीच वह, चांद को दिखाती है॥
हठ करे बाल अति, मात उसे डांट- डांट,
चल नेक राह सुत, नित्य ही सिखाती है।
किन्तु सुत हठवान, करे मातृ अपमान,
हो नियति रोषमान, तांडव मचाती है॥

हाय- हाय चीतकार, ईश्वर सहाय लाग,
त्राहि- माम त्राहि- माम, मूढ़ चिल्लाता है।
कौन पाप दु:ख दीन्ह, अनभल कौन कीन्ह,
सनेही प्रकृति मात, डायन बताता है॥
सभ्यता सुमेर मिस्र, दजला फरात सिन्धु,
इनका विनाश नर, दम्भ को दिखाता है।
चेत- नर दम्भवान, नवनियति1 को मान,
संधृत विकास2 क्यों न, विश्व अपनाता है॥

(1-नवनियति- नवनियतिवाद- जिसमें मानव सह प्रकृति के अस्तीत्व को स्वीकार किया गया है।
2-संधृत विकास- जिसमें भविष्य को ध्यान में रखकर संसाधनों के उपयोग पर बल दिया गया है।)

_________________________________________________________________

21.श्री राम शिरोमणि पाठक जी 

(1)दोहा

रोज़ सुबकती है धरा ,करती मौन विलाप 
मानव दम्भी लालची ,देख रहा चुपचाप !!१

हुई प्यास से अधमरी ,बढ़ती जाती पीर 
नदियाँ खुद ही मांगती ,दे दो थोड़ा नीर !!२

प्रकृति हाथ जोड़े खडी ,मानव रहा दहाड़ 
डर के मारे कांपते,जंगल ,नदी,पहाड़ !!३

अपना ही शिशु जब कभी ,करे मलिन व्यवहार 
जाऊं किसके पास मै,किससे करूँ गुहार!!४

सबको खुशियाँ बाटती,करती उचित निदान
अब तो मानव चेत ले ,त्याग तनिक अभिमान !!५

(2) अतुकांत 
भय विस्मय और खेद 
अपलक निहारते मौन
टकटकी लगाए नयन खोजते 
छत विछत लाशों के ढेर में 
काश कोई अपना दिख जाए 
हे ईश्वर!
ऐसा नृशंस दृश्य कोई न देखे 
ऐसा प्रतीत होता 
धरा भी कलुषित हुई 
काल की क्रूरता से 
क्यूँ?पता कर मानव 

 _________________________________________________________________

22.श्री गणेश जी 'बागी'

पाँच हाइकु

(१)
समझो भ्राता,
प्रकृति व मनुष्य,
गहरा नाता.
(२)
पेड़ लगाओ,
फिर हो संतुलन,
जल बचाओ.
(३)
स्वच्छ आकाश,
हरी भरी धरती,
सच्चा विकास. 
(४)
मानव बौना,
रोबोट के मानिंद,
एक खिलौना.
(५)
पाहन पूजा,
प्रकृति संरक्षण,
राह न दूजा.

________________________

 

23.सुश्री वंदना जी 

फिर कहीं गिरा नीम या बरगद छायादार 

यूँ गांवों को निगल गया शहरों का विस्तार 

शापित मानव  कर्म से धरा रो रही आज

चील झपट के खेल के बदले ना अंदाज

तृष्णा पीछे भागते सुने न मन का शोर

कैसे सोयी रात थी कैसे जागी भोर

धरणी तो यह पल रही तेरे अंक विशाल

क्यूँ प्रलय का राग फिर सृजन हेतु दिक्पाल  

_______________________________________________________________

24.श्री प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा जी 

तिलक धारिबे घिसते चंदन 

जय शिव जय रघुनायक नंदन 
तेरी शरण सदा शिव प्यारे 
विपदा हरत दरस हैं न्यारे 
पाप पुन्य की गठरी बाँधे 
जा पहुंचे जपते शिव राधे 
अजब द्रश्य दीख तहं ग्रामा 
भगती क्षीण पग पग ड्रामा 
ऊँचे परवत छटा मनोहर 
कटे वन सदा प्रक्रति धरोहर 
सुंदर  नर नारी के वेषा 
कटते तन मन उपवन देखा 
पाप पुन्य पग पग संग चलते 
अमरबेल सम पापी पलते 
कथनी करनी राखे भेदा 
सुख कस पाये सुन लो वेदा 
प्रकृति संग खेल रहे फल से हो अनजान 
कटते वन देखत रहे कैसे बचते प्रान 
______________________________________
25. श्री कवी राज बुन्देली जी 
मानव जब  है जानता,प्रकृति हमारी  साँस ।
काट-काट कर पॆड़ तू,क्यॊं कर रहा विनाश ॥
क्यॊं कर रहा विनाश,मौत कॊ  दावत दॆता ।
अमृत कलश तू फॊड़, गरल पीनॆ कॊ लॆता ॥
कहॆं "राज" कविराज, निगल जायॆगा दानव ।
हॊगा महा-विनाश, सँभल जा मूरख मानव ॥

  _____________________________________

26.श्री बृजेश नीरज जी 

 

उस जगह पर ले चलो

 

उस जगह पर ले चलो

 

जिस जगह पर छांव हो

         प्रकृति रूनझुन

         खग की गुनगुन

धरती हरित भाव हो

         खिल उठें पुष्प

         धर स्वप्न रूप

ऐसी जगह पर चलो

 

हवा से प्राण झंकृत

        झरना अविरल

        नदिया कल कल

बारिशों में अलंकृत

        छाए बदरी

        गाएं कजरी

झूमने गाने चलो

 

हम जहां हैं वहां बस

       भीड़ है अजब

       शोर है गजब

ईंट की दीवार बस

       उखड़ती सांस

       टूटती आस

उकता गया मन, चलो

 

थक गए हैं पांव अब

       कोई ठौर न

       कोई जोर न

क्या बचा है साथ अब

      लोभ की रेह

      अहं की मेह

रेत के पर्वत चढ़ो

 

और दुनिया अब चलो।

 ____________________________________________    

27श्री सत्यनारायण शिवराम सिंह जी 

(१)

छेडे पर दुख भोगते, शातिर चतुर सुजान।

कभी किसी की सहचरा, मत छेड़ो इंसान।।

मत छेड़ो इंसान, ईश की बनी सहचरा।

जीकर सदी हजार, उभरी प्रकृति अनुचरा।।

कहे सत्य कविराय, गर्क हो जाते बेड़े।

मूढ़ मनुज इतराय, प्रकृति स्वार्थ वश छेड़े।।

 

(२)

आस्था औ विश्वास पर, चढ़ा बजारू रंग।

तीरथ भी सजने लगे, पर्यटकों के संग।।  

पर्यटकों के संग, दंग देखो अविनाशी।

बहा ले गयी गंग, मनुज करतूत विनाशी।।

कहे सत्य कविराय, आधुनिक सोच व्यवस्था।

खंड नहीं कर जाय, हमारी अखंड आस्था।।  

___________________________________________ 

28. श्री हरीश उप्रेती जी 

 

धरती पर जीवन के लिए प्रकृति है अनमोल|

स्वार्थ में अँधा मानव समझे न किन्तु मोल||

 

भौतिक सुखों की चाह में नित करता जाये भूल|

कांट  छांट  के  वृक्षों  को ढूंढें  अंत  का  मूल||

 

पासाणों को तोड़ रहा, रुख नदिया का मोड़ रहा|

जलधारा को बांध रहा, वायु को भी साध रहा वो||

 

खनिजों की चाहत में, सीना धरती का फाड़ रहा|

मानव से दानव बनके  नाता प्रकृति से तोड़ रहा ||

 

गर तूने आदत न बदली, प्रकृति केदारनाथ दोहराएगी  |

मानव तेरी करनी के बदले प्रकृति  तुझे   मिटाएगी ||   

_________________________________________

29.श्री आर बी गिरी रवि जी 

(1)

हम हर कदम दर कदम

बढ़ते गए और बढ़ती गई दंभ ,

लगता हैं यही वजह की हम ,

करने लगे प्रकृति को बिकृत ,

और बढ़ चले उनसे भी आगे ,

वो भी गंगा को रोकने के लिए ,

बिना सोचे बिना समझे ,

हम भी चले शिव बनने ,

शिव भी तब तैयार हुए ,

जब भक्त मजबूर किया था ,

वो शिव थे उनमे क्षमता थी ,

मगर हम उसी गंगा को ,

हर कदम बांध कर ,

उसके क्षमता से खिलवार कर ,

कोई होटल तो कोई बनाया घर ,

सरकार हमसे भी आगे बढ़ी ,

बिजली उत्पादन के लिए

बांध बाध कर ,

मगर वो गंगा हैं ,

प्रकृति की रक्षक ,

और बन गई भकक्षक ,

खास हो या आम ,

सभने देखा चार धाम ,

 

 (2)हाइकु 


एक ही शब्द ,
चाहिए कलरव ,
पेड़ बोकर ,

2

आफत टार ,

पेड़ों के सेवाकर ,

रह तत्पर

3

तू बांध मत ,

माँ गंगा की डगर ,

आये कहर ,

4

प्रकृति हक ,

मानव मत बहक ,

देगा पटक ,

 ______________________________________

30. श्री मोहन बेगोवाल जी  

मौत का तांडव 

केसी आपदा बन आई

बहा कि ले गई हर सपना

कोई ये तो बता दे

क्या नहीं, बताया प्रकृति

कि  मेरे साथ खिलवाड का

ऐसा ही इंजाम होगा

मानव कहता जीत जाऊंगा

आखर मैं तुझ से

ठीक कहता होगा

मगर क्या इतना गवा

लालच का जीत जाना

कहीं जीत का ये ड्रामा 

जीवन के साथ  ड्रामा तो नहीं ?

_______________________________________

31. श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी 

प्रकृति नहीं जानती प्रेम या घृणा करना

प्रकृति नहीं जानती दया या क्रूरता

प्रकृति नहीं जानती जीवन और मृत्यु देना

 

प्रकृति पालन करती है उन समीकरणों का

जिनके सभी चर और अचर

हमें अभी पूरी तरह ज्ञात नहीं हैं

 

डायनोसोरों ने नहीं काटा था एक भी पेड़

नहीं बनाया था एक भी बाँध

फिर भी उनकी समूची प्रजाति केवल इसलिए नष्ट हो गई

क्योंकि वो प्रकृति के बारे में कुछ नहीं जानते थे

इसलिये वो नहीं कर सके पूर्वानुमान

मौसम में हुये एक विश्वव्यापी बदलाव का

 

इंसान प्रकृति की क्रूरता से नहीं मरते

वो मरते हैं

अधिकारियों के भ्रष्टाचार, आलस्य और लालच की वजह से

 

कैसे बन जाते हैं

बाढ़ आने की संभावना वाले क्षेत्रों में घर

भूकम्प की प्रबल संभावना वाले क्षेत्रों में अभूकंपरोधी मकान

 

कैसे नहीं मिलती पूर्व सूचना भारी बारिश की

क्यों नहीं पहुँचती जन जन तक

झीलों और बाँधों के भरने और फटने की संभावना

 

प्रकृति हमारी दुश्मन नहीं है

पर इतना जरूर है

कि प्रकृति के बगैर इस धरती पर

इंसान तो क्या जीवन ही पैदा नहीं होता

पर इंसान के होने या न होने से

प्रकृति पर कोई फर्क नहीं पड़ता

____________________________________

32. डॉ० नूतन डिमरी गैरोला जी  

वह स्त्री

जाने कब से /युगों से

सहस्त्रों गर्भ धारण करती हुई

रूद्र का सृजन स्वरुप

सूर्य के ओज से

उर्जान्वित होती रही|

 

उसकी पीड़ा का

आदी न अंत था

युगों से प्रसव वेदना सहती रही

कोख में सींचती रही

और बाहर आने पर

अपनी आती जाती संतानों को

आँचल में संभाल

गोद में सहेजती रही|

अपना स्तनपान कराती रही

भोजन पानी देती रही|

 

कहीं निर्मल नदी की धार सी

कहीं हरियाले आँचल की छाँव सी

वन उपवन में महकती खुश्बू सी

इंद्रधनुष से रंग भरती तितली सी

भर भर गागर जीवन बिखेरती रही

ताकि संतति उसकी मुस्कुराती रहे

खुशियों से भर खिलखिलाती रहे|

 

जिनको इतने प्यार दुलार स्व

अपनी गोद मे खिलाया

वह संतति वह मानवरूप

बड़ा हो कर भरमाया

उसकी लालसाओं ने

महत्वकाक्षाओं ने

माँ के आँचल को

छलनी तार तार किया

माँ की मज्जा मांस का दोहन

निहित स्वार्थ के लिए

उसकी निर्मल नदियों का धार रोंक

खोद खोद कर बाँध बनाया

वन उपवन को क़तर क़तर कर

कंक्रीट का बंजर बनाया|

समृद्ध सुन्दर पहाड़ों पर

विनाशकारी बम लगाया|

चिमनियों के धुवें से माँ का काला रूप बनाया

दावानल की अग्नि से माँ की देह को झुलसाया ......

 

फूट फूट कर रोई माँ

बच्चों की नादानी पे ..

अब बस भी करो

माँ कहती

अब सहा जाता नहीं ...

और देख पायी नहीं वह

सृजक रूद्र का वह अपमान ..

तीर्थ की संस्कृति को

पर्यटन का व्यवसाय बनाया

जहाँ रतजगे होते थे आराधना के

वहाँ भोगियों ने मधुमास का केन्द्र बनाया|

 

तब कुपित हो कर माता

अपनी संतति को

देती है दंड

रोती है वो जार जार

तब समुन्दर मे ही क्या

पहाड़ों मे भी सुनामी लेती है जन्म

दरकने लगती है जमीन

जमीदोज हो जाते है पहाड़

जलजला उठता है

बवंडर उठते हैं

सैलाब रुकते नहीं ..

बिफर कर

नेस्तानाबूत कर देती है

अपनी संतति को

उसके जन जीवन को

हँसते खिलखिलाते भूखंड

शमशान के सन्नाटों मे

शवों की दुर्गन्ध से

पट जाते है ..

तब मानवता का वह हिस्सा

इतिहास मे दर्ज  

या अदेखी

सभ्यता हो जाती है

और झीलें जीवाश्मों से भरी

रहस्यमयी हो जाती हैं ....

केदार में आपदा मानव को

चेताती है ..

हे मानव! उठ

होश संभाल

प्रकृति माँ का श्रृंगार कर

प्रकृति माँ का सम्मान कर .....

 

********************************************
 
--Dr. Prachi Singh
 

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आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी सादर,  सभी रचनाओं के संकलन का एक बहुत ही कष्ट साध्य कार्य पूर्ण करने पर आपका बहुत बहुत आभार. यकीनन पिछले कुछ महा उत्सवों में सदस्यों की रूचि बढ़ी हैं फिर भी मुझे लगता है अभी भी कुछ सदस्य जो ब्लॉग पर अच्छी रचनाएं रच रहे हैं. वह इस ओर  रूचि नहीं दिखा रहे हैं.

इस बार व्यस्तताओं के कारण कुछ रचनाएं पढ़ने से छूट गयी थीं जो इस संकलन में पढ़ने को मिली. सादर आभार.

आदरणीय अशोक जी 

संकलन का आपने रसास्वादन किया तो श्रम सार्थक हुआ ही समझूँ...सादर.

महोत्सव और छान्दोत्सव में सदस्यों का बढ़ चढ़ कर भाग लेना हम सभी के लिए लेखन को प्रोत्साहित करने वाला है, आह्लादकारी, संतुष्टिदायक है..

जो सदस्य सिर्फ ब्लॉग तक ही सीमित रहते हैं और मंच पर आयोजनों में प्रस्तुति नहीं दे पाते उसके मनोविज्ञान की विवेचना अपने अपने स्तर पर सभी करते हैं, और उसे स्पष्तः समझते भी हैं...

ओबीओ पर सीखने सिखाने की परिपाटी है..सुनने सुनाने की नहीं..तो जो यहाँ सीख कर आगे बढ़ना चाहता है, वो स्वयं ही खिंचा चला आता है.

सादर.

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"आदरणीय अच्छे सार्थक दोहे हुए हैं , हार्दिक बधाई  आख़िरी दोहे की मात्रा फिर से गिन लीजिये …"
1 hour ago
सालिक गणवीर shared Admin's page on Facebook
5 hours ago

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गिरिराज भंडारी's blog post was featured

एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]

एक धरती जो सदा से जल रही है   ********************************२१२२    २१२२     २१२२ एक इच्छा मन के…See More
Tuesday

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गिरिराज भंडारी posted a blog post

एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]

एक धरती जो सदा से जल रही है   ********************************२१२२    २१२२     २१२२ एक इच्छा मन के…See More
Tuesday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . .तकदीर

दोहा सप्तक. . . . . तकदीर   होती है हर हाथ में, किस्मत भरी लकीर । उसकी रहमत के बिना, कब बदले तकदीर…See More
Tuesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
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'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 166

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ छियासठवाँ आयोजन है।.…See More
Monday

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गिरिराज भंडारी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"आदरणीय  चेतन प्रकाश भाई  आपका हार्दिक आभार "
Sunday

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गिरिराज भंडारी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"आदरणीय बड़े भाई  आपका हार्दिक आभार "
Sunday

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गिरिराज भंडारी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"आभार आपका  आदरणीय  सुशील भाई "
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए धन्यवाद।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Sunday

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