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खुशबू समेटने से किसका  हुआ भला   है   

जब-जब चिता जली है, चन्दन वहाँ  जला  है 

 

बैठा रहा तो मुझको खुद से गिला था यारों 

जब चल पड़ा तो सबको हर पल बहुत खला है 

 

अब है किसे पता भी, माहौल कब ये बदले 

हर शख्स देखने में लगता मुझे भला है

 

सुन वो कहाँ रहे थे, चर्चा चली जो मेरी 

बेचैन  हो गए, जब, उनका कहा  भला है  

 

जिसको अजीज़ माना, यूँ दूर ही रहे सब 

जब काम आ पड़ा तो फिर से खलामला है

                     खलामला = मेलजोल

डॉ ललित 

मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment by Ketan Parmar on June 27, 2013 at 9:20pm

BHOT HI KHUB SIRJI KYA KEHNE

Comment by D P Mathur on June 27, 2013 at 8:01pm

आदरणीय ललित सर सादर नमस्कार ,
बैठा रहा तो मुझको खुद से गिला था यारों
जब चल पड़ा तो सबको हर पल बहुत खला है
सुन्दर पंक्तियों में जीवन की सच्चाई छिपी है !

Comment by विजय मिश्र on June 27, 2013 at 6:15pm
बधाई हो ललितजी इस मीठी सी रचना के लिए . बहुत सुंदर लगी .
Comment by अरुन 'अनन्त' on June 27, 2013 at 12:44pm

वाह आदरणीय वाह दमदार ग़ज़ल शानदार अशआर मज़ा आ गया दिली दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by रविकर on June 27, 2013 at 10:34am

बहुत खूब -

शुभकामनायें आदरणीय-

Comment by बसंत नेमा on June 27, 2013 at 10:21am

बहुत सुन्दर गजल .. बधाई 

Comment by Dr Lalit Kumar Singh on June 27, 2013 at 4:48am

गीतिका वेदिका जी, जीतेन्द्र पस्तारिया जी और केवल प्रसाद जी का शुक्रिया 

Comment by Dr Lalit Kumar Singh on June 27, 2013 at 4:46am
दिल से शुक्रिया आपका विजय निकोरे जी
Comment by vijay nikore on June 27, 2013 at 3:18am

आ०ललित जी:

अच्छी गज़ल के लिए बधाई।

विजय निकोर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 26, 2013 at 11:10pm

आ0 डा0 ललित जी,  बहुत सुन्दर गजल।  तहेदिल से दाद कुबूल करें।  सादर,

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