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इन्कलाब //कुशवाहा //

क्या है 

इन्कलाब 
नहीं जानता 
शायद आप जानते हों 
हिंदी उर्दू अरबी फारसी 
लब्ज तो नहीं 
पञ्च तत्व 
पञ्च इन्द्रियां 
पञ्च कर्म 
या 
मुर्दा कौमों की 
संजीवनी बूटी ?
बस इतना जानता हूँ 
हाथ नहीं  पंजा नही 
एक बंधी मुट्ठी 
आशाओं को समेटे हुए 
आसमान को भेदते हुए 
सीने में दफ्न 
एक आग 
एक ललक 
हद से गुजर जाने की 
सीना तान 
बुलंद आवाज 
मेहनतकश 
मजदूर और जवान 
इन्कलाब जिंदाबाद 
कहता है 
इसके अस्तित्व का 
एहसास होता है 
इन्कलाब 
कहीं खुदा तो नहीं 
जो सब देता है ?
---------------------------------------------
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 
३-५-२०१३ 
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 563

Comment

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 2, 2013 at 2:02pm

आदरनीय अशोक जी 

सादर /सस्नेह 

प्रोत्साहन हेतु आभार 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 2, 2013 at 1:59pm

प्रिय ब्रजेश जी 

सस्नेह आभार 

सादर 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 2, 2013 at 1:58pm

आदरणीया सीमा जी 

सादर अभिवादन 

अपने व्यस्त समय से क्षण देकर प्रोत्साहित किया . आभार 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 2, 2013 at 1:56pm

प्रिय केवल प्रसाद जी 

सस्नेह आभार 

सादर 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 2, 2013 at 1:55pm

आदरणीया कुंती जी 

सादर 

प्रोत्साहन हेतु आभार 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 2, 2013 at 1:54pm

आदरनीय मनोज जी 

सादर

रचना पसंद करने हेतु आभार 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 2, 2013 at 1:53pm

आदरनीय श्याम नारायण वर्मा जी 

सादर 

स्नेह हेतु आभार 

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 5, 2013 at 2:45pm

आदरणीय प्रदीप जी सादर बहुत सुन्दर अतुकांत रचना सादर हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by बृजेश नीरज on May 5, 2013 at 12:06am

बहुत सुन्दर! बधाई स्वीकारें।

Comment by seema agrawal on May 4, 2013 at 11:34pm

बहुत विचारशील रचना ..........कुशवाहा जी ......हार्दिक बधाई......... छंदमुक्त रचनाओं में नए बिम्ब और नए प्रतीक ही रचना को रोचक बनाते  हैं जो आपकी इस कविता में मौजूद हैं 

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