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गीत वो गा रहे // कुशवाहा //

गीत  वो गा रहे // कुशवाहा //

-----------------

गीत  वो गा रहे    

प्रचार देखते रहे 

पुष्प झरें मुखार से 

तलवार देखते रहे 

------------------

मंच था सजा हुआ 

चमचों से अटा हुआ 

गाल सब बजा रहे 

भिन्न राग थे गा रहे 

सुन जरा  ठहर गया

भाव लहर में बह गया

चुनाव है  था विषय

आतुर सुनने हर शय

शब्द जाल फेंक वे 

जन जन  फंसा रहे 

गीत  वो गा रहे    

प्रचार देखते रहे 

पुष्प झरें मुखार से 

तलवार देखते रहे 

----------------------- 

बढ़ बढ़ बली आये 

चढ़ चढ़ मंच धाये

पांच साल क्या किया 

उपलब्धि गिनवाये रहे 

जिसे घोटाला कह रहे 

घोटाला नहीं विकास है 

स्विस बैंक जमा धन 

अँधेरा नहीं प्रकाश है 

सुरक्षित यहाँ धन नही 

अधिक ब्याज ला रहे 

गीत  वो गा रहे    

प्रचार देखते रहे 

पुष्प झरें मुखार से 

तलवार देखते रहे 

-------------------

थी सडक कहीं नहीं 

बिजली का पता नहीं

जगह जगह गड्ढे थे 

शराब के अड्डे थे 

दूकान पर राशन नहीं 

स्वच्छ प्रशासन नही 

धन्य वाद आपका 

हम  पे  एतबार किये 

गाड़ दिये  खम्बे सभी 

तार अभी लगवाय रहे 

गीत  वो गा रहे    

प्रचार देखते रहे 

पुष्प झरें मुखार से 

तलवार देखते रहे 

------------------

अपराध में सानी नही

धन्धे में  बेईमानी नही 

टू जी हो या थ्री जी 

कोयला घोटाला पी 

देश सुरक्षा में भी 

सेंध लगवाय रहे 

रहने को घर नही 

पीने  को पानी नही

वाल मार्ट खोल कर 

दारू पानी बिकवाय रहे 

गीत  वो गा रहे    

प्रचार देखते रहे 

पुष्प झरें मुखार से 

तलवार देखते रहे 

---------------------   

सोना महंगा हुआ 

चांदी  लुभाय रही 

दलहन उत्पादन घटा 

वनरोज खाय रही 

योजनाएं चली बहुत 

मनरेगा छाय रही 

बन्दर बाँट होये न 

फेल हुई हाय री 

गैस खाद महंगा किया 

सब्सिडी हटवाय रहे 

गीत  वो गा रहे    

प्रचार देखते रहे 

पुष्प झरें मुखार से 

तलवार देखते रहे 

--------------------

बिन दवा गरीब मरे 

बड़े लोग पाय रहे 

दाने दाने मोहताज 

अन्न को सडाय रहे 

स्कूल में शिक्षक नहीं 

लैपटॉप बंटवाय रहे 

विदेश नीति में हम 

सास बहू रिश्ता निभाय रहे 

छीने जमीन  कोई 

शीश कटवाय रहे 

गीत  वो गा रहे    

प्रचार देखते रहे 

पुष्प झरें मुखार से 

तलवार देखते रहे

-------------------- 

इस बार वोट दो 

पांच वर्ष न आउंगा 

दूर से तकोगे 

हाथ नही आउंगा

बैठ सदन में 

ठंडी हवा खाऊंगा 

भूलूँगा मैं तुम्हें 

तुम्हें याद आऊंगा 

मदारी बन मैं 

नाच  खूब नचाउंगा  

नख से शीर्ष तक 

पोशाक देखते रहे 

गीत  वो गा रहे    

प्रचार देखते रहे 

पुष्प झरें मुखार से 

तलवार देखते रहे

-------------------- 

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 

२-५-२०१३ 

मौलिक /अप्रकाशित 

 

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Comment

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 9, 2013 at 5:02am

श्रद्धेय महोदय, सादर अभिवादन!

जनता जनार्दन देख रही नीचे से
नेता जी मंच पर, वार करे पीछे से
मौका जो मिल गया
नेता सब मिल गया
संसद से सड़क पर कर रहे वार हैं.
जनता बेचारी है,
भूख से ही यारी है
नागनाथ, साप नाथ
कमल को मरोड़े हाथ
कैसी लाचारी है!
नेता न सीखेंगे
दांत दर्द चीखेंगे
पप्पू से फेंकू नपे
अब अगली तैयारी है ..
इसके बाद आप दिखें
मन में संताप रखे
.........
इस बार वोट दो
पांच वर्ष न आउंगा
दूर से तकोगे
हाथ नही आउंगा
बैठ सदन में
ठंडी हवा खाऊंगा
भूलूँगा मैं तुम्हें
तुम्हें याद आऊंगा
मदारी बन मैं
नाच खूब नचाउंगा
नख से शीर्ष तक
पोशाक देखते रहे
गीत वो गा रहे
प्रचार देखते रहे
पुष्प झरें मुखार से
तलवार देखते रहे
...

बचा नहीं विकल्प है 

समय बचा अल्प है 

बुद्धिजीवी सोयेंगे 

पांच वर्ष रोयेंगे 

विपदा को ढोयेंगे 

आपा भी खोयेंगे 

कैसी लाचारी है!....

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 5, 2013 at 1:05pm

कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे की तर्ज पर सुन्दर काव्य रचना में नेताओं को लताड़ लगाई है आपने,एकाध जगह टंकन त्रुटी है वरना सुन्दर रचना बन पड़ी है सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय प्रदीप सिंह कुशवाहा साहब.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on May 5, 2013 at 12:26am

आदरणीय कुशवाहा जी, मधुर व्यंग्य, कटाक्ष, हास्य, यथार्थ और कटु सत्य को एक साथ ही व्यक्त करती सटीक रचना हेतु बधाई स्वीकार करें

Comment by बृजेश नीरज on May 4, 2013 at 11:53pm

आदरणीय प्रदीप जी आप जिस तल्लीनता से रचनाकर्म में लगे हुए हैं। वह श्रम इस रचना में साकार हो रहा है। आपको बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए।

Comment by coontee mukerji on May 3, 2013 at 9:08pm

इस गीत को सुनने के बाद और कोई गीत सुनने  की  जरूरत  नहीं है मगर  विडम्बना तो यहीं है कि जनता जनार्दन बहुत भुलक्कड़  और उदार दिल है.  ...  बहुत  सुंदर / सादर  /  कुंती.

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 3, 2013 at 8:44pm

आ0 कुशवाहा जी, करारा व्यंग।
’’विदेश नीति में हम
सास बहू रिश्ता निभाय रहे
छीने जमीन कोई
शीश कटवाय रहे
गीत वो गा रहे ’’...। हार्दिक बधाई स्वीकारें..इस जागरण के लिए। सादर,

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 3, 2013 at 6:43pm

आदरणीय विजय मिश्र जी 

सादर 

आपने मेरे प्रयास को सराहा. अब लगा की बात पहुंचेगी 

आभार 

Comment by विजय मिश्र on May 3, 2013 at 6:32pm
" बिन दवा गरीब मरे
बड़े लोग पाय रहे
दाने दाने मोहताज
अन्न को सडाय रहे
स्कूल में शिक्षक नहीं
लैपटॉप बंटवाय रहे
विदेश नीति में हम
सास बहू रिश्ता निभाय रहे
छीने जमीन कोई
शीश कटवाय रहे "
---- अन्यायी ,अराजक ,बेईमान और नीतिहीन छल-छद्मी नेताओं पर सटिक कटाक्ष है और आपकी कविता तो देश की दुर्दशा का जीवन्त आईना है जिसमें दिखने योग्य हर चीज धुँधली लग रही है . साधुवाद कुशवाहा जी .
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 3, 2013 at 11:34am

आदरणीय गुरुदेव सौरभ जी 

सादर 

मेहनत सफल हुई. 

आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 3, 2013 at 10:43am

इस हास्य कविता का अलग ही मजा है. आजकी प्रशासनिक व्यवस्था से खार खाये मध्यम वर्गीय समाज की आंतरिक पीड़ा उभर कर दीखती है.बहुत-बहुत बधाई, आदरणीय.

बहुत खूब !..

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