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एक लड़की पगली सी

एक लड़की पगली सी -
खड़ी रहती हर सुबह छ्त पर अकेली,
कभी बालों को सँवारती,
होंठों में कुछ गुनगुनाती रहती.

सूरज जब दहलीज पर आता
दे जाता आभा रेशम सी,
सुनहरी किरणों से नहाती औ’
खुशियों से झूम झूम जाती.

एक लड़की भोली सी -
टहलती हुई छ्त पर भरी दोपहर
बालों को फूलों से सजाती,
पवन का झोंका आता ठहर-ठहर
डोल जाती वह कोमलांगिनी
शर्माती, हुई जाती कुछ सिहर-सिहर.

हँसती, कभी मुसकाती एक लड़की -
भोला बचपन गया, कब आया यौवन
समझ न पायी वह दीवानी,
फूल सी ज़िंदगी -
पर ,
मन में कितनी उलझन !!

एक दिन उमड़ता घुमड़ता,
छ्त पर आया
मटमैला, दिलफेंक एक आवारा बादल -
प्यार का मधुर गीत गुनगुनाता,
मोहित किया,
प्रेम की बरसात हुई,
भीगा उसका आँचल.

न सोचा ना समझा –
सर्वस्व लुटाया.
चल दी अनजान सफ़र पर, सब कुछ भुला
सूना छ्त , सूनी दोपहर, सूनी गली
रवि, पवन सब देखते रहे,
क्या कहें भला ?

एक लड़की –
अनजान देश में ठगी सी,
जिसे दिल दिया उसीने किया सौदा ;
कभी इधर कभी उधर भागती सी,
तन का ग्रास बनी
कभी इसका कभी उसका.

एक शाम -
एक लड़की सयानी,
समुद्र किनारे सैलानियों का दिल बहलाती.
देख सूरज शर्म से सागर में डूब जाता,
हवा तेज़ बहती ,
लहरें भी रहती भागती.

अंधेरी रात -
एक लड़की थकी सी,
सूने घर में चंद साँसें गिन रही;
चहुँ-ओर था अंधेरा ही अंधेरा.
इंतज़ार, सूरज के दहलीज पर आने का
फिर कब हो नया सबेरा.

किसका था दोष ?
लड़की का ?
या उसके यौवन का ?
एक फूल सा जीवन,
सपनों की टोकरी,
टूटकर शून्य में बिखर गया.

सूने घर में -
एक लड़की अनजानी,
मिट गयी कोमल कनक सी काया;
धरती से आकाश तक
उठा हाहाकार,
पर -
निष्ठुर समाज
चलता रहा अपने ही ढर्रे पर.

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Comment

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Comment by coontee mukerji on May 1, 2013 at 7:57pm

मैं आप सभी लोगों को धन्यवाद समर्पण करती हूँ जो अपने कीमती समय निकाल कर मेरी रचना का मान दिया .......एक सुंदर देश   चारों ओर हरा नीला समुद्र क्षितीज तक लहराता हुआ...जहाँ  प्रकृति  अपनी

सुनहरे घड़े से सौंदर्य उड़लते नहीं अघाती .....वहाँ  दुनिया भर से आये प्राकृतिक सौंदर्य प्रेमी अपनी लोलुपता  से बाज़ नहीं आते हैं ......आधुनिकता के शिखर पर पहुँचते  छोटा सा देश इतनी बड़ी बात समझ नहीं पाते ......कभी कभी  आधुनिकता का दोरूपयोग  एक

समाज का  , एक देश का अभिशाप बन जाता है......सादर  /  कुंती .


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Comment by Dr.Prachi Singh on April 30, 2013 at 8:05pm

आदरणीय कुंती जी 

मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति 

चल दी अनजान सफ़र पर, सब कुछ भुला
सूना छ्त , सूनी दोपहर, सूनी गली
रवि, पवन सब देखते रहे, 
क्या कहें भला ?

शुभ कामनाएं 

Comment by vijay nikore on April 29, 2013 at 6:09pm

आदरणीया कुंती जी,

 

बहुत श्लाघनीय कार्य किया है आपने !

कमाल की प्रस्तुति ! 

संजों कर रखने लायक है !

अनन्य सराहना के साथ,

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by akhilesh mishra on April 29, 2013 at 3:19pm

bahut khub badhai swikare .

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 29, 2013 at 3:10pm

एक लड़की का यौवन, उसका अल्लह्डपन, उसके सपने कब टूट कर बिखर जाते है, काल के ग्रास में समा जाते है 

नारी मन की इस वेदना को अंतस से अहसास कर लिखी गयी रचना में नारी के शोषण पर गहराई से कलम को

डुबोया है आपने आदरणीया कुंती मुखर्जी | इसमें जहां समाज को कोसा है वही स्वछंद नारी को सोच समझ कर

प्यार के डग भरने की नसीहत भी है, पर समझ अपने अपनी | बहुत खूब बधाई  

Comment by राजेश 'मृदु' on April 29, 2013 at 2:10pm

प्‍यार में बिना सोचे-समझे सर्वस्‍व लुटाने का अंजाम यही होता है यह उसे सीखना पड़ेगा और सभी लड़कियों को सीखना पड़ेगा कि प्‍यार को कब तक अंधा ही रहने दोगे, उसे आंखों वाला बनाने की जरुरत है

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 28, 2013 at 9:13am

आदरणीया सादर, तीन भिन्न आयामों पर नारी छवि को सुन्दरता से प्रस्तुत किया है.रचना बताती है किस तरह नारी  शोषण के तल तक पहुँच गयी.बहुत खूब.

Comment by Usha Taneja on April 27, 2013 at 10:32pm

आदरणीया 

नारी की स्थिति का इस तरह से जो चित्रण आपने किया है, तारीफ के काबिल है. 'रवि, पवन सब देखते रहे,' काश वे रोक सकते .......

''सपनों की टोकरी,
टूटकर शून्य में बिखर गया.

सूने घर में -.......''

इस दर्द को...

सादर 

 

Comment by manoj shukla on April 27, 2013 at 9:01pm
बहुत सुन्दर रचना ..... आपने उस लडकी को माध्यम बना कर नारी के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार का सुन्दर चित्रण किया है....आदर्णीया बधाई स्वीकार करें
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 27, 2013 at 7:48pm

आ0  कुन्ती जी,  अतिसुन्दर प्रस्तुति।  हां, एक सांझ सजीली  फिर अरूणिमा में धीरे-धीरे स्याह हुई।  किसका दोष है? वह सूरज जो छोड़ गया या फिर यह तिमिर जो भयावह ढंग से डस गया।  हार्दिक बधाई स्वीकारें।   सादर,

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