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दोस्तो, ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार आप सभी के स्नेह के लिए सदा अभारी है | पिछले दिनों "OBO लाइव ऑनलाइन तरही मुशायरों" को मिली अपार सफलता से हम सब अभिभूत हैं | परन्तु हमने देखा कि हमारे कई दोस्त ग़ज़ल के अलावा भी बहुत कुछ लिखते हैं | ओपन बुक्स ऑनलाइन साहित्यकारों का एक प्रसिद्ध मंच है तथा यहाँ हर विधा के फनकार विराजमान हैं, तो हमने सोचा क्यूँ न एक इवेंट आयोजित किया जाए, जिसमें सभी मित्र गण अपनी अपनी विधा में अपने अपने हिसाब से शिरकत कर सकें!

तो दोस्तों, प्रस्तुत है ओपन बुक्स ऑनलाइन का एक और धमाका "OBO लाइव महा इवेंट"

इस महा इवेंट की ख़ासियत यह है कि दिए गये विषय को लक्ष्य करते हुए आप सभी को अपनी अपनी रचनाएँ पोस्ट करनी हैं | वो रचना ग़ज़ल, गीत, कविता, छंद, मुक्तक, लघुकथा, पद, रसिया, व्यंग्य या कुछ और भी हो सकती है | सभी से निवेदन है की सर्व ज्ञात अनुशासन बनाए रखते हुए अपनी अपनी कला से दूसरों को रु-ब-रु होने का मौका दें |

इस बार के "OBO लाइव महा इवेंट" का विषय है "दीपावली"

ये इवेंट शुरू होगा दिनांक ०१.११.२०१० को और समाप्त होगा १०.११.२०१० को, रोचकता को बनाये रखने हेतु एडमिन जी से निवेदन है कि फिलहाल Reply Box को बंद कर दे तथा इसे दिनांक ०१.११.२०१० को खोल दे जिससे सभी फनकार सीधे अपनी रचना को पोस्ट कर सके |

आप सभी सम्मानित फनकार इस महा इवेंट मे सादर आमंत्रित है,जो फनकार अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार के सदस्य नहीं हैं तो अनुरोध है कि www.openbooksonline.com पर Login होकर Sign Up कर ले तथा "OBO लाइव महा इवेंट" मे शिरकत करें | आप सभी से सहयोग की अपेक्षा है |

आप सबका
नविन सी. चतुर्वेदी

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Replies to This Discussion

वन्दे मातरम आदरणीय प्रभाकर जी,
एक बेहतरीन रचना पर क्या टिप्पणी करूँ समझ नही आ रहा है, आपकी अंतिम लाइन मैं दो लाइन जोड़ रहा हूँ क्षमा चाहता हूँ.........
दहशतगर्दी बुझा गई दीपक जिनके,
उन्हें लगे काला त्यौहार ये दीपों का !
कब दहशतगर्दी से निजात हम पाएंगे,
कब भारत माता पायेगी, संसार ये दीपों का?
दिवाली


आओ कुछ इस तरह से
हम तुम दिवाली मनाएँ
ज्योतिर्मय हो अंतर हमारा
प्रेम-दीप एक मन में जलाएँ

झिलमिलाते दीपों की पंक्तियाँ
अपने आँगन में हम यूँ बिछाएं
हो जाए जग ये सारा जगमग
अपनी चौखट को इतना बढ़ाएँ

सौहार्द की आलोकित गंगा को
निज मन में हम सब उतारें
बैर-द्वेष सब मिट जाएँ हृदय से
रूठे चेहरों पर मुस्कानें खिलाएँ

स्नेह वाटिका के पुष्पों से हम
अपने जीवन में रंगोली सजाएँ
अपनी खुशियों को बाँटे सबसे
औरों के गम को हम हर लाएँ

जहाँ भी हो अंधेरे का बसेरा
लक्ष्मी को वो घर हम दिखाएँ
जो हाशिए पर खड़े हैं कब से
गले उनसे मिल दिवाली मनाएँ
आदरणीय गोपी नाथ जी, पहली बार आपको पढ़ना बहुत ही रुचिकर लग रहा है, बहुत ही सरस रचना है , कई बार पढने के बाद भी नवीनता जस की तस है , अंतिम दो पक्ति जैसे रचना की निचोड़ है ,
जो हाशिए पर खड़े हैं कब से
गले उनसे मिल दिवाली मनाएँ,
बहुत ही उम्द्दा , बेहतरीन काव्य कृति पर आपको बार बार बधाई |
आदरणीय गोपी नाथ जी, बहुत ही खूबसूरत रचना है आपकी ! विशेषकर ये निम्नलिखित पंक्तियों ने तो दिल ही जीत लिया :
//स्नेह वाटिका के पुष्पों से हम
अपने जीवन में रंगोली सजाएँ
अपनी खुशियों को बाँटे सबसे
औरों के गम को हम हर लाएँ//
साधुवाद स्वीकार कीजिये !
bilkul sahi, diwali k yahi maayne bhi hone chaahiye.
bilkul sarthak panktiya.
हो जाए जग ये सारा जगमग
अपनी चौखट को इतना बढ़ाएँ

बेहतरीन भाई गोपी नाथ जी,
विश्व बन्धुत्व की भावना को जगाती उत्तम रचना के लिए बधाई
दीवाली

बैठ कोने में बर्तन घिसे
पसीना टपके बूँदों से !
नकली मुस्कान लिए होठों पे
दर्द टपकता आँखों से !!


आने वाले कुछ दिनों की
चिंता उसे भी घेरी है !
मेरे ख़यालों में रोशनी
पर उसकी सोच अंधेरी है !!

चार दिन बाद है दीवाली
घर में सब कुछ नया !
उमंग उत्सव हर तरफ
हर दिल में खुशहाली है !!

वो सोचे अपनी किस्मत को
पुराने कपड़ों में कुछ कम !
पुराने कपड़ों की कल्पना
झूठी मुस्कान और आँखें नम !!

एक साल की उम्मीदों की
शायद होगी सुनवाई अब !
मिलेगी उसे बखशीश फिर
आस बरस से पाली है !!

चिढ़ाती मुँह मंहगाई जैसे
बच्चों की माँगे भी बढ़ी !
लक्ष्मी पूजन करे वो कैसे
उदर अग्नि मुँह फाडे खड़ी !!

घर में खाने को तेल नही
दीपक वो जलाए कैसे !
अंधेरी अमावस पसरी चौतर्फे
रोशनी वो जलाए कैसे !!

यह सवाल है सब से समीर
क्यों गहरा यह अंधेरा है !
अमावस तो अमावस है पर
गुम उसकी कहाँ दीवाली है !!

समीर पटियालवी
चिढ़ाती मुँह मंहगाई जैसे
बच्चों की माँगे भी बढ़ी !
लक्ष्मी पूजन करे वो कैसे
उदर अग्नि मुँह फाडे खड़ी !!

सुविधावो से वंचित वर्ग जो आभाव मे जिन्दगी बसर करता है , उनकी प्रतिनिधित्व करती यह कविता मानो उन्हे जुबान मिल गई हो ! बेहतरीन कृति ,

कृपया शंका का समाधान करे कि जसदीप सिंह और समीर पटियालवी क्या एक ही है ?
जसदीप जी, धरातल और हकीकत के रंगों से सराबोर आपकी रचना पढ़ कर बहुत सुकून मिला ! आपने सिक्के से दूसरे का जो सजीव चित्रं किया है, उसके लिए मैं आपको मुबारकबाद देता हूँ ! इस महा इवेंट में आपसे ऐसी ही और भी बहुत सारी सारगर्भित रचनायों का इंतज़ार रहेगा !
एक साल की उम्मीदों की
शायद होगी सुनवाई अब !
मिलेगी उसे बखशीश फिर
आस बरस से पाली है !!
waah, aah ko nikalti panktiya kahi hai aapne samir ji.
घर में खाने को तेल नही
दीपक वो जलाए कैसे !
hakikat hai.
श्री राम लौटे अयोध्या
रात भी काली अमावस थी
रोशनी की लोगों ने
खुशी दिलों में भरकस थी

पाप मिटा सच हुआ विजयी
जीत यह ऐसे भारी थी
क्या हुआ रोशन जाग सारा
अजब वो दीवाली थी

आज राम को लाऊँ कैसे
रात आज भी काली है
पाप दिलों में भरपूर
काली सी दीवाली है

दिलों में नफ़रत झूठ
घर कर के बैठे हैं
शम्मा सच की बुझी
अंधेरा रोशनी से खाली है

ढूंढूं खोए राम को
हमारे तुम्हारे बीच कहीं
फिर जीते मुर्दा सच
क्योंकि आज फिर दीवाली है

आज फिर दीवाली है


Sameer Patiallvi
आज राम को लाऊँ कैसे
रात आज भी काली है,

बहुत बढ़िया , सचमुच रात अभी भी काली है , बहुत ही बेहतरीन रचना , बधाई ,

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