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व्यंग्य रचना: हो गया इंसां कमीना... संजीव 'सलिल'

व्यंग्य रचना:
हो गया इंसां कमीना...
संजीव 'सलिल'
*
गली थी सुनसान, कुतिया एक थी जाती अकेली.
दिखे कुछ कुत्ते, सहम संकुचा गठी थी वह नवेली..
कहा कुत्तों ने: 'न डरिए, श्वान हैं इंसां नहीं हम.
आंच इज्जत पर न आयेगी, भरोसा रखें मैडम..
जाइए चाहे जहाँ सर उठा, है खतरा न कोई.
आदमी से दूर रहिए, शराफत उसने है खोई..'

कहा कुतिया ने:'करें हडताल लेकर एक नारा.
आदमी खुद को कहे कुत्ता नहीं हमको गवारा..'
'ठीक कहती हो बहिन तुम, जानवर कुछ तुरत बोले.
मांग हो अब जानवर खुद को नहीं इंसां बोले.
थे सभी सहमत, न अब इन्सान को मुंह लगायेंगे.
हो गया लुच्चा कमीना, आदमी को बताएँगे..
*****
 

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Comment by sanjiv verma 'salil' on January 1, 2013 at 10:30am

प्राची जी, शुभ्रा जी आपकी गुणग्राहकता को नमन.

Comment by shubhra sharma on January 1, 2013 at 9:53am

आपकी इस व्यंग काव्य रचना ने   इन्सान को अपने अन्दर झाकने पर मजबूर करता है ,बहुत बहुत बधाई 


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Comment by Dr.Prachi Singh on December 31, 2012 at 8:14pm

इंसान के निकृष्टतम स्वरुप पर अपनी वेदना को सुगढ़ता के साथ व्यंगबद्ध करने के लिए हार्दिक बधाई. सादर.

Comment by sanjiv verma 'salil' on December 31, 2012 at 6:25pm

अनंत जी, लक्ष्मण जी, शालिनी जी, अशोक जी, सत्य नारायण जी, सीमा जी, सौरभ जी

मेरी शर्म और पीड़ा को साँझा करने के लिए आपका आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 31, 2012 at 2:15pm

संस्कार हम शिक्षितों के बीच हास्य-परिहास की चीज़ बनकर रह गया है. तबतक कोई उम्मीद नहीं जबतक हम पिस्सु-पिल्लुओं की ग़लीज़ ज़िन्दग़ी न जीने लगें. इसके बाद ही कुछ उम्मीद जगती है.  जब देश ग्लानि और क्रोध में धधक रहा है, इसी दिल्ली में घिनौनी हरकतों की एक बार फिर से वारदात हुई है. बंगाल से रोने की आवाज़ आयी है.

एक अच्छी व्यंग्य रचना के लिए सादर बधाई.

Comment by seema agrawal on December 31, 2012 at 2:07pm

सभ्यता और संस्कार का अंतर स्वयंम इंसान ने अपनी करतूतों समाप्त कर दिया है .........सत्य को सत्य कहती रचना 

Comment by Satyanarayan Singh on December 31, 2012 at 12:48pm

आदरणीय सलिलजी

इस रचना के माध्यम से आपने इक्कीसवी सदी के इन्सान पर करारा व्यंग कसा है बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by Ashok Kumar Raktale on December 31, 2012 at 8:49am

कहा कुतिया ने:'करें हडताल लेकर एक नारा.
आदमी खुद को कहे कुत्ता नहीं हमको गवारा..'..........जान ले अब इंसान.

सुन्दर रचना आद.सलिल जी

Comment by shalini kaushik on December 30, 2012 at 8:53pm

बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक अभिव्यक्ति

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 30, 2012 at 5:25pm

इंसान पर व्यंग करती रचना ने भी हमें शर्मसार होने को मजबूर कर दिया 

सटी व्यंग के लिए बधाई आदरणीय संजीव वर्मा सलिल जी 

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