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 नहीं रहा अब गाँव में, भाईचारा भाव,
खेतो में बढ़ने लगे, नित क्लेश के भाव ।
 
 
नहीं रहा अब शहर में, जीना यूँ आसान,
जगते है अब चाय से, रात जाम की शान ।
 
मोल झूंठ का बढ रहा, संत जगत भी मौन,
सच सस्ते में बिक रहा, सच बोले अब कौन।
 
सज्जनता के खोल में, दुष्टो की है देह,
इमान पर भी आ रहा, मन में अब संदेह ।
 
साथ हमारा तज गए, मन के कैसे मीत,
 हमको अब भाते नहीं ,मधुर प्रेम के गीत ।   
 
बस्ती बस्ती कंस है,   नहीं तुझे है भान 
गलियो में रावण मिले,अपमानित है राम ।
 
कुर्सी से लगन जिनकी, वे सब तो है साथ, 
सुर में सुर मिले जब ही, कुर्सी तेरे  हाथ ।
 
टिकिट मिलगया हो गए, इक दूजे के साथ,
टिकिट कट गया तो गए, बागी के हम साथ ।
 
दाग दामन पर न लगे, यह झुलसाती आग,
बचो झुलसती आग से, बागी को झट त्याग ।
       
दगा वक्त पर दे गए, अब तक थे वे ख़ास,
'लक्ष्मण' अब करना नहीं,गैरों पर विश्वास ।
 
-लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला 

 

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 17, 2012 at 9:41am

दोहे पसंदकर हॉंसला बढ़ाने के लिएहार्दिक आभार श्री अशोक रक्ताले साहिब दोहे आदरणिया राजेश जी के या अन्य के सुझाव पर संशोधित तो कर लेता हूँ | पर यहा ब्लॉग पर पुनः एडिट कर पोस्ट करने पर अवटिंग अप्रूवल मे बहुत देर तक रहता है| इसलिए अपने ईमेल पर ही सेव कर रख लेता हूँ |

Comment by Ashok Kumar Raktale on December 16, 2012 at 10:10pm

आदरणीय लड़ीवाला साहब बहुत सुन्दर दोहों की प्रस्तुति.बधाई स्वीकारें आद. राजेशकुमारी जी ने कुछ कमियों पर नजर डाली है आप इसे सुधार कर दोहे पुनः प्रस्तुत कर सकते हैं क्योंकि यह तो ब्लॉग पर हैं.पुनः बधाई स्वीकारें.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 12, 2012 at 1:27pm

दोहे पसंद करने के लिए आपका शुक्रिया श्री जवाहर लाल सिंह जी

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 12, 2012 at 4:36am

आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी, नमस्कार!

समस्त भावों को अपने आप में समेटती आपकी रचना काबिले तारीफ है! बधाई!

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 6, 2012 at 12:24pm

हार्दिक आभार आपका भाई अरुण शर्मा अनंत जी दोहे ओबीओ में ही गुरुजनों से सीखे है 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 6, 2012 at 12:04pm

सुझाव देने के लिए हार्दिक आभार राजेश कुमारी जी दरअसल नित्य लिखना था जो टंकण त्रुटी वश नित हो गया 

ईमान की जगह इमान रोमन से ट्रांसलेट में त्रुटी हुई है । ध्यान दिलाने के लिए पुनः आभार 
Comment by अरुन 'अनन्त' on December 6, 2012 at 11:56am

सर आपका जवाब नहीं मुझे दोहों का ज्ञान नहीं है परन्तु पढने में बहुत ही मज़ा आ गया है, तहे दिल से बधाई स्वीकारें


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 6, 2012 at 11:48am

लक्ष्मण जी बहुत अच्छे प्रेरणास्पद दोहे लिखे हैं कुछ सुधारों का सुझाव दिया है करके देखिये हार्दिक बधाई आपको 

नहीं रहा अब गाँव में, भाईचारा भाव,

खेतो में बढ़ने लगे, नित क्लेश के भाव ।-------इसमें 10 मात्राएँ आ रही हैं 
 
 सज्जनता के खोल में, दुष्टो की है देह,
इमान पर भी आ रहा, मन में अब संदेह ------ईमान में बड़ी ई  होती है 
 
कुर्सी से लगन जिनकी, वे सब तो है साथ, ------जिनकी कुर्सी से लगन कर के देखिये 
सुर में सुर मिले जब ही, कुर्सी तेरे  हाथ ।----

 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 6, 2012 at 10:21am

जो छंद विधान की विशेषज्ञ है उनके तो पांच दोहे पचास दोहे के बराबर होंगे | आपके सुन्दर भाव दोहे पर बधाई भाई वीनस केसरी जी, मुझे तो अभी सीखना है | दोहे और गजल दोनों पर आपकी अच्छी पकड़ है । मेरे दोहे आपको पसंद आने का अर्थ तो मुझे प्रमाण पात्र मिलने सामान है, इसके लिए आपका विशेष रूप से हार्दिक आभार 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 6, 2012 at 10:12am

दोहों के भाव पसंद करने की लिए अपका हार्दिक आभार श्री लतीफ़ खान भाई 

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