मत्तगयन्द सवैया 23 वर्णों का छन्द है, जिसमें सात भगण के पीछे यानि बाद दो गुरुओं का योग होता है. भगण का रूप भानस है जिसके शब्द गुरु लघु लघु यानि ऽ। । होते हैं. इसे ऐसे भी समझा जा सकता है --
मत्तगयंद सवैया का एक पद (पंक्ति) = भानस भानस भानस भानस भानस भानस भानस गुरु गुरु
एक भानस = 3 वर्ण, तो सात भानस = 21 वर्ण और पीछे से दो गुरु गुरु वर्ण यानि कुल वर्णों की संख्या हुई, 21 + 2 = 23.
यानि, मत्तगयंद सवैया = भगण X 7 +गुरु+गुरु
मत्तगयंद सवैया में चार पद होते हैं और तुकांत होते हैं. जबतक कि किसी प्रयोजन विशेष के चलते रचनाकार ने कोई नवीन प्रयोग न किया हो.
एक उदाहरण -
सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोति फटी-सि लटी दुपटी अरु, पाँयउ पानहि की नहिं सामा॥
द्वार खरो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकि सौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥
पहला पद -
सीस प (गुरु लघु लघु) / गा न झ (गुरु लघु लघु) / गा तन (गुरु लघु लघु) / में प्रभु, (गुरु लघु लघु) /
<-------1--------------> <----------2----------------> <--------3---------------> <---------4--------------->
जानै को (गुरु लघु लघु) / आहि ब (गुरु लघु लघु) / सै केहि (गुरु लघु लघु) / ग्रामा (गुरु गुरु)
<-----------5-------------> <-----------6-------------> <-----------7------------> <-------8------->
ध्यान से देखा जाय तो पाँचवे भगण में कुछ अस्पष्टता है. जानैको भगण न हो कर मगण (मातारा, ऽऽऽ) प्रतीत हो रहा है. किन्तु पद के वाचन-प्रवाह (पढ़ने की गति) के अनुसार शब्द जानक ही पढा जायेगा, न कि जानैको. इसी रह सातवें भगण की व्याख्या है. सैकेहि को सैकहि पढ़ा जायेगा.
इसी आलोक में उदाहरण में उद्धृत अन्य तीनों पदों को देखा जाय.
इस क्रम में, उद्धृत छंद में दूसरा पद काबिलेग़ौर है --
धोति फटी-सि लटी दुपटी अरु, पाँयउ पानहि की नहिं सामा
यहाँ धोती को धोति, फटी-सी को फटी-सि तथा नहीं को नहिं लिखा गया है. इसे शब्द अक्षरी में दोष की तरह न देख कर उच्चारण प्रवाह के अनुसार शब्द के अक्षर पर स्वराघात में परिवर्तन की तरह देखा जाना चाहिये. यही कारण है कि सवैये हिन्दी के आंचलिक रूप को आसानी से स्वीकार करते हैं, बनिस्पत हिन्दी के खड़े रूप के.
गुरु वर्णों के लघु रूप में उच्चारित करने के बाबत विशद जानकारी इस लेखमाला के सवैया लेख से लिया जा सकता है.
और हम जान ही चुके हैं कि उच्चारण के कारण ही कारक विभक्तियों के चिह्न छंद रचना के समय आवश्यकतानुसार लघु रूप में व्यवहृत होते हैं.
ज्ञातव्य :
प्रस्तुत आलेख प्राप्त जानकारी और उपलब्ध साहित्य पर आधारित है.
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आदरणीय सौरभ जी, बहुत सुन्दर प्रयास है ये सवैया जैसे मधुर छंद की जानकारी देने का ! बहुत बहुत आभार !
और एक बात....
मारग प्रेम को को समुझै, हरिचंद यथारथ होत यथा है !
लाभ कछू न पुकारन में, बदनाम ही होन की सारी कथा है !
जानत है जिय मेरो भलो विधि, और उपाय सबै बिरथा है !
बाँवरे हैं ब्रज के सिगरे, मोहि नाहक पूछत कौन बिथा है !
-भारतेंदु हरिश्चंद्र (प्रेम माधुरी)
संभवतः ये मत्तगयंद सवैया ही है ! अगर ये मत्तगयंद है, तब जिन अक्षरों को मैंने बोल्ड किया है, उन्हें देखते हुवे भी क्या ये निर्दोष है ? इसे एक शंका समझकर समाधान करें !
पियुषजी, आपने इस लेख को पढ़ लिया है तो यह स्पष्ट हो चुका होगा कि को को लघु लिया जा सकता है. आगे के बोल्ड शब्द वाचन-प्रवाह में लघु हुए हैं. भारतेन्दु की इस रचना में हिन्दी का खड़ा रूप नहीं है जिसे हम आज बोलते हैं. अतः आंचलिक शब्दों का उच्चारण अपने हिसाब से हुआ है.
आदरणीय सौरभ जी, आपके प्रत्युत्तर से शंका खत्म हुई ! बहुत श्रेष्ठ कवियों की सवैया तथा अन्य वर्णवृत रचनाओं को पढ़ने के दौरान अक्सर मै इस बात से भ्रमित होता था कि यहाँ लघु की जगह गुरु क्यों? उत्तर ये लगता कि हो सकता है टाईपिंग की गलती हो, पर अब सब साफ़ हो गया है ! सादर धन्यवाद आदरणीय !
आप उपरोक्त लेख को पुनः देख जाइये, पियुष भाईजी. लेख में आप समीचीन परिवर्तन पायेंगे और आपकी शंकाओं का यथोचित समाधान भी होगा.
शुभेच्छाएँ
जी, अब समझ में आ रहा है कि सवैया में प्रायः हिंदी के वर्तमान रूप की अपेक्षा आंचलिक रूप के ही दर्शन क्यों होते हैं ! सादर आभार !
आदरणीय सौरभ जी
सुप्रभात, सादर प्रणाम, बहुत ही बढ़िया जानकारी, अंत में दो गुरु या गुरु लघु लघु. भूली हुई व्याकरण की बातों का पुनः स्मरण कराया है एक बहुमूल्य जानकारी है. किन्तु अब भी यति पर शंका बनी हुई है.कृपया समाधान करें.सादर.
आदरणीय अशोक भाईजी, आपका हार्दिक आभार कि आपने मेरे प्रयास को सराहा है.
ऐसे पोस्ट वस्तुतः व्यक्तिवाची न हो कर समूहवाची हों ऐसा मेरा सदा से मानना रहा है. छंद विधान शास्त्रीय हैं, सनातन हैं, इनका इस म्ंच पर अब सूचीबद्ध होना अधिक आवश्यक है बनिस्पत सारा कुछ एक ही बार में समेट लिया जाय. मेरा सादर निवेदन रहा है और पुनः दुहराता हूँ कि किसी के पास किसी छंद से सम्बन्धित सुस्पष्ट और शास्त्रीय जानकारी उपलब्ध है तो वह अवश्य इन पन्नों पर साझा करे ताकि आवश्यक तथ्यों को लेख का भाग बना कर पुनर्व्यवस्थित किया जा सके.
सवैया के वाचन की एक परंपरा रही है और उसकी यति निर्धारित हो जाती है. यों चार भगण पर यति का होना स्वयमेव बनता है. विद्वद्जन इस तरह की बात कहते भी हैं. लेकिन यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है क्यों कि यह मात्रिक छंद नहीं है.
आखिरी बात, सात भगण के पश्चात् दो गुरु का जुड़ना ही मत्तगयंद की परिपाटी रही है और इसे रहने दें हम. एक गुरु और दो लघु से पद समापन अभी भ्रम उत्पन्न करेगा. वैसे यह अवश्य है कि रसखान की अति प्रसिद्ध छंद-रचना ’मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन’ का अंत गुरु लघु लघु से ही हुआ है. लेकिन हम इस छंद प्रकार पर आगे चर्चा करेंगे.
यह अवश्य है भाईजी, कि प्रयोग के तौर पर चारों पदों में तुकांत न ले कर दो-दो पदों का तुकांत लिया जाना आज की भाषा के लिहाज से अधिक उचित दिखा है. ऐसा एक दो प्रयोग हमने देखे हैं और हमने उनका अनुकरण भी किया है.
आपकी टिप्पणी से बहुत कुछ और साझा होगा. आगे भी उचित लगे तो आलेख को एडिट/ मोडिफाइ करता रहूँगा.
सादर
सादर,
काफी कुछ साफ़ होने लगा है, आपके द्वारा बतायी जानकारियों के आलोक में आगे छंदों पर अवश्य प्रयास करूँगा. सादर आभार.
आदरणीय सौरभ जी मत्तगयन्द सवैया के विषय में सम्यक जानकारी दी है नए सीखने वालों के लिए बहुत ही काम की चीज है कारक विभक्तियों के चिन्ह को लघु करने का भी प्रावधान है नई जानकारी के लिए हार्दिक आभार और हाँ सम्बन्ध विभक्ति चिन्ह में रा रे री भी जोड़ दीजिये ,(जैसे पियूष जी सारी पर अटक गए हैं ) इस बेहतरीन पोस्ट के लिए दिल से आभार|
//जैसे पियूष जी सारी पर अटक गए हैं //
सारी जैसे शब्दों को लेकर बातें मूल पोस्ट में हमने जोड़ दी हैं.
संबन्ध कारक में का, के, की के साथ रा, रे, री भी मान्य है. चूँकि उस पाराग्राफ का मूल मक़सद मात्र इशारा देना है अतः व्याकरण से सम्बन्धित अन्य बातें साझा नहीं करना अधिक उचित लगा है.
साथ ही, इस आलेख को पुनः देखा जाय तो कई बातें स्पष्ट होंगी. और लेख से सम्बन्धित आशय मैंने आदरणीय अशोक रक्ताले साहब की प्रतिक्रिया मे व्यक्त कर दिया है. पुनः कहूँ तो छंदों पर प्रस्तुतियाँ व्यक्तिपरक प्रयास न हो कर सामुहिक प्रयास होनी चाहिये. हम नया छंद तो साझा कर नहीं रहे बल्कि शास्त्रीय/सनातनी छंदों पर जहाँ-तहाँ उपलब्ध जानकारियों को संकलित कर रहे हैं.
आदरणीया राजेश कुमारीजी, इस आलेख को अनुमोदित करने के लिए आपका हार्दिक आभार.
जी सौरभ जी बहुत बार मैं बड़े बड़े कवियों के छंदों में इसी बात पर अटक जाती थी की दीर्घ को लघु की जगह कैसे लिखा गया आज स्पष्ट हो गया अब कोई संशय नहीं बचा ग़ज़ल की तरह आपकी कक्षा में बैठना अच्छा लग रहा है अब छंदों को सीखने जिज्ञासु नए कवियों के लिए बहुत सुलभ ज्ञान दान कर रहे हैं आप दिल से आभार
आदरणीय राजेश कुमारीजी, जैसा कि मैं हमेशा कहता हूँ, हम आपस में सीख कर अपनी समझ को आगे साझा करते हैं. ये छंद शास्त्रीय और सनातनी हैं. हम इनमें ऐसा कुछ नहीं जोड़ रहे जो इनके पूरे प्रारूप में ही कोई विशेष परिवर्तन कर दे. हम इनके बारे में उपलब्ध जानकारियों को संकलित कर कुछ संशयों पर समवेत चर्चा कर उनका निराकरण करें, यही मेरी प्रस्तुतियों का मूल उद्येश्य है.
और, मेरी कक्षा ? ... आपका सादर आभार, आदरणीया .. . :-))))
जय होऽऽऽऽ
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