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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २

जिन्दगी है उलझी तेरे तुर्रा -ए-तर्रार की तरह

और इतनी साफ़ कि पढ़लो अखबार की तरह

 

एहसासेतवाफ़ेरोजोशब ये सोना- जागना अपना

भटकते हैं दर- दर तम्सीलके किरदारकी तरह   

 

आना ही था तो आ जाता जैसे नींद रातों को

तू ज़िंदगीमें क्यूँ आया फ़स्लेबेइख्तेयारकी तरह

 

तुझसे बिछड़नाभी हो गोया कोई कारेखुदकुशी

और तुझसे इश्क निभानाभी वस्लेनारकी तरह

 

दर्दकी दास्ताँ रहगई खतोंकी तहरीर की तरह

प्यार हमारा टूट गया मुंहबोले इकरारकी तरह

 

हम सरनिगूँ थे तेरी यादमें पे सबने ये सोचा  

तेरे कूचेसे हम क्यूँ निकले गुनहगार की तरह

 

हम चलपड़ें तेरे नक्शेपापे तू जिधर जाए लेक

रुक जाएँ जो तू रुक जाए, रहगुज़ार की तरह   

 

राज़ अब कौन करे खिदमत अपनी क़ब्लेमर्ग  

हम हो गए हैं इक लाइलाज आज़ार की तरह

 

© राज़ नवादवी

भोपाल, अपराह्न ०१.०१, २६/०६/२०१२   

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Comment by राज़ नवादवी on June 28, 2012 at 10:22am

धन्यवाद भाई अरुण एवं उमाशंकर जी जो आपने पढाने के ज़हमत उठाई! 

- राज़ नवादवी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on June 27, 2012 at 11:57pm

खूबसूरत हास्य गज़ल

Comment by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 10:00am

ज़हेकिस्मत जो आपको ये गज़ल पसंद आई राज!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 27, 2012 at 9:16am

पहले तो मतले ने ही दिल मोह लिया ...सभी शेर खूबसूरत हैं  किस किस की तारीफ़ करूँ ...कम शब्दों में .....लाजबाब

Comment by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:29pm

आदाब अर्ज है जनाब! 

Comment by Albela Khatri on June 26, 2012 at 11:25pm

हाय हाय हाय हाय
क्या कह दिया,.........

दर्दकी दास्ताँ रहगई खतोंकी तहरीर की तरह

प्यार हमारा टूट गया मुंहबोले इकरारकी तरह

____बहुत ख़ूब !

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