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ग़ज़ल - वो कहे कर के इशारा, सब ग़लत ( गिरिराज भंडारी )

२१२२    २१२२      २१२

गुफ़्तगू चुप्पी इशारा सब ग़लत

बारहा तुमको पुकारा सब ग़लत

 

ये समंदर ठीक है, खारा सही

ताल नदिया वो बहारा सब ग़लत

 

रोज़ डूबे, रोज़ लाया खींच कर

एक दिन क़िस्मत से हारा, सब ग़लत

 

एक क्यारी को लबालब भर दिये

भोगता जो बाग़ सारा, सब ग़लत

 

मान  जायेंगे  ग़लत वो  हैं, अगर

आप जो कह दें दुबारा, सब ग़लत

 

तुम रहे कुछ ठीक, कुछ मैं भी रहा

जो बचा  बाक़ी  हमारा, सब ग़लत

 

एक वो ही ठीक, जो  दिखता नहीं

वो कहे  कर के इशारा, सब ग़लत

************************************ 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी 19 minutes ago

अनुज बृजेश  ग़ज़ल की सराहना  के लिए आपका बहुत शुक्रिया 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' 5 hours ago

वाह-वाह आदरणीय भंडारी जी क्या ही शानदार ग़ज़ल कही है। और रदीफ़ ने तो दीवाना कर दिया।हार्दिक बधाई....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on Friday

आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल पर आपकी उपस्थति और उत्साहवर्धक  प्रतिक्रया  के लिए आपका हार्दिक आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on Friday

आदरणीय गिरिराज भाईजी, आपकी प्रस्तुति का रदीफ जिस उच्च मस्तिष्क की सोच की परिणति है. यह वेदान्त की ’नेति-नेति’ के दर्शन से प्रभावित है. इस नजरिये से गजल के सभी शेर सचेत, गंभीर पाठकों को अद्वितीय मायना बताते दिखेंगे, इसमें शक नहीं. 

इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई, आदरणीय. 

कृपया ध्यान दे...

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