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ग़ज़ल (काश होता न जो तक़दीर का मारा मैं भी )

2122 - 1122 - 1122 - 22/112

काश होता न जो तक़दीर का मारा मैं भी

देता  इफ़लास-ज़दाओं  को सहारा मैं भी

रौशनी मेरे सियह-ख़ाने  में रहती हर शब 

टिमटिमाता जो कोई होता सितारा मैं भी

वो  निगाहों  में  मिरी  जैसे  बसे रहते  हैं 

काश नज़रों  में  रहूँ  बनके नज़ारा मैं भी 

वो भी  मेरी  ही  तरह  दर्द  सहे आहें भरे  

यूँ  ही तन्हा  न रहूँ  इश्क़  का मारा मैं भी

जिस तरह क़ैस ने सहरा में गुज़ारे थे दिन 

कर  ही लूँगा तेरे  वादों पे  गुज़ारा  मैं भी 

राज़दारी  से  चली आना  मेरी जान इधर

मुस्कुराकर जो करूँ छत से इशारा मैं भी 

होती मुझ में भी तेरे जैसी बसीरत जो 'अमीर' 

कर गया होता ग़लीज़ों से किनारा मैं भी 

"मौलिक व अप्रकाशित" 

इफ़लास-ज़दा - दरिद्रता से पीड़ित, मुफ़लिस, निर्धनता से दुखी, poor.

सियह-ख़ाना -  मुसीबतों का घर, क़ैद ख़ाना, वीरान घर, dark-room. 

क़ैस - लैला के आशिक़ का नाम, मजनूँ  सहरा - रेगिस्तान, उजाड़, वीराना, desert. 

राज़दारी-से - गुप्त रूप से, छुपते-छुपाते, रहस्यमयी ढंग से, secretly. 

बसीरत - ज्योति, चातुर्य, बुद्धिमत्ता, अन्तर्दृष्टि, दूरदर्शिता, दिल की नज़र, vision. 

ग़लीज़ों - नजिस, नापक, गंदे, अपवित्र, मलिन, भृष्ट (प्रकृति के) लोग 

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on August 26, 2021 at 4:44pm

मुहतरम रवि शुक्ला  जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।  सादर।

Comment by Ravi Shukla on August 26, 2021 at 12:30pm

आदरणीय अमीरुद्दीन जी, अच्छी  गजल हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें तीसरा शेर खास पसंद आया मुझे।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on August 25, 2021 at 10:24pm

जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का शुक्रिया।  सादर।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 25, 2021 at 9:05pm

आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on August 22, 2021 at 10:52pm

जनाब चेतन प्रकाश चेतन जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और उत्साहवर्धन हेतु आभार।

//दूसरे शे'र के सानी मिसरे में 'जो' के बजाय 'तो' होने पर कहन सार्थक होता//

मुहतरम दूसरे शे'र के सानी मिसरे में 'जो' को 'यदि' के अर्थ में लिया गया है जिसके लिए 'तो' को नहीं लिया जा सकता है।

//एक शंका और है, क्या, मोहतरम, मक़ते का ' जो' व्यर्थ नहीं है, सादर...! //

जनाब यहाँ भी 'जो' को 'यदि' के अर्थ में लिया गया है जो कि व्यधिकरण समुच्चयबोधक अव्यय है जिसके बिना बात पूरी और सार्थक नहीं हो सकती है।  सादर। 

Comment by Chetan Prakash on August 22, 2021 at 9:21pm

आदाब, अमीर' साहब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास किया आपने! जनाब, दूसरे शे'र के सानी मिसरे में 'जो' के बजाय 'तो' होने पर कहन सार्थक होता! और एक शंका और है, क्या, मोहतरम, मक़ते का ' जो' व्यर्थ नहीं है, सादर...! 

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