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आदरणीय साहित्य प्रेमियो,

जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है. इसी क्रम में प्रस्तुत है :

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-119 

विषय - "वो भी क्या दिन थे"

आयोजन अवधि- 12 सितम्बर 2020, दिन शनिवार से 13 सितम्बर 2020, दिन रविवार की समाप्ति तक अर्थात कुल दो दिन.

ध्यान रहे : बात बेशक छोटी हो लेकिन ’घाव करे गंभीर’ करने वाली हो तो पद्य- समारोह का आनन्द बहुगुणा हो जाए. आयोजन के लिए दिये विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी मौलिक एवं अप्रकाशित रचना पद्य-साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते हैं. साथ ही अन्य साथियों की रचना पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते हैं.

उदाहरण स्वरुप पद्य-साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --

तुकांत कविता, अतुकांत आधुनिक कविता, हास्य कविता, गीत-नवगीत, ग़ज़ल, नज़्म, हाइकू, सॉनेट, व्यंग्य काव्य, मुक्तक, शास्त्रीय-छंद जैसे दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका आदि.

अति आवश्यक सूचना :-

रचनाओं की संख्या पर कोई बन्धन नहीं है. किन्तु, एक से अधिक रचनाएँ प्रस्तुत करनी हों तो पद्य-साहित्य की अलग अलग विधाओं अथवा अलग अलग छंदों में रचनाएँ प्रस्तुत हों.
रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना अच्छी तरह से देवनागरी के फॉण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें.
रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे अपनी रचना पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं.
प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें.
नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर संकलन आने के बाद संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.

आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है.

इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.

रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से स्माइली अथवा रोमन फाण्ट का उपयोग न करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना, एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो - 12 सितम्बर 2020, दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा।

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ई. गणेश जी बाग़ी 
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आदरणीय सतविन्द्र भाई

छाछ, नमक, चटनी या गुड़ थे रोटी संग
बचपन वाली खीर सँभाले बैठे हैं। ...........  अति सुंदर

हृदय से बधाई इस प्रस्तुति पर

 

आदरणीय अखिलेश जी, सादर वंदन सह आभार

ओ बी ओ महोत्सव अंक ११९ के लिए 
विषय - वो भी क्या दिन थे 
विधा - ग़ज़ल
स्वरचित - मौलिक - अप्रकाशित 

****

वो भी क्या दिन थे जो अपनों से लड़ा करते थे,
था वो बचपन पर जुदाई से डरा करते थे ।

हम भी मालिक थे जहाजों के कई वर्षों तलक,
पर वो बरसात के पानी में चला करते थे ।

शोहरत इतनी कमा लेते थे दोस्तों में यूँ,
जीते कंचे थे वो जेबों में दिखा करते थे ।

कितना तब शोर हुआ करता था छत पे यूँ ही,
जब कोई मैच पतंगों के हुआ करते थे ।

कितनी ग़मगीन हुआ करती थीं रातें तब भी,
जब किसी खेल में अपने ही दगा करते थे ।

बचपन निश्चय ही सुहाना और अविस्मरणीय समय होता है जीवन का। उसे आपने खूब जीवंत किया है। बहुत खूब रचना

आदरणीय अजय गुप्ता जी स्नेहिल शब्दों के लिए तहे दिल से शुक्रिया ।

आदरणीय हर्ष जी

हम भी मालिक थे जहाजों के कई वर्षों तलक,
पर वो बरसात के पानी में चला करते थे । ......... वाह  ! बहुत सुंदर

हृदय से बधाई इस प्रस्तुति पर

आदरणीय अखिलेश जी आपकु आमद और पसंदगी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ।

सादर ।

गजल का अच्छा प्रयास है आदरणीय, हार्दिक बधाई

कुछ बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है, जैसे: काफ़िया बंदी सही नहीं हुई (ईता का ऐब महसूस हो रहा है)।

2. कोई  शब्द का इस्तेमाल एकवचन में ही हुआ करता है। सादर

आदरणीय सतविंदर कुमार राणा जी आपकी आमद और महत्वपूर्ण इस्लाह का ह्रदय तल से शुक्रिया ।

सादर ।

२४ मात्रिक पद, समापन गुरु से
नवगीत

हाथ मिलाकर मिलते थे हम जब मिलते थे
गले लगाकर मिलते थे हम जब मिलते थे
होती थी मुस्कान, मुखौटा नहीं चढ़ा था
मुख दिखलाकर मिलते थे हम जब मिलते थे

होटल में खाने का किस्सा अगर छिड़ा तो
बाहर आने जाने का मन अगर हुआ तो
छुट्टी मिलती थी तो मन खुश हो जाता था
चल पड़ते थे कहीं घूमने समय लगा तो

रहती थी गतिमान पहर ये चार ज़िंदगी
पर थमी थमी सी लगती है अब ये कितनी
कुछ दिन लगा भला पर अब ये भी तो सोचें
उतनी ख़ुशियाँ पाईं क्या खोईं हैं जितनी

नहीं अकेला नगर-देश-परिवार हिला है
पड़ी आपदा अनायास संसार हिला है
कहने को तो जीवन शैली बदली है बस
दुनिया का पर सामाजिक आधार हिला है

सुख दुःख में भी आना जाना छूट गया है
रिश्ता सबका जैसे सबसे टूट गया है
जिस घट में थे प्राण हमारे संबंधों के
चोट काल की लगी वही घट फूट गया है

साहस रखकर बढ़ते रहने का निश्चय हो
संकल्पों को जीवित रखने का निश्चय हो
लौट चले आयेंगें वो दिन जग के फिर से
बुरे समय में हाथ पकड़ने का निश्चय हो

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

आदरणीय अजय भाईजी

कुछ महीनों पहले जो स्थिति थी और आज जो महामारी विश्व स्तर पर फैली है उसे आपने सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। हृदय से बधाई

 

शुक्रिया अखिलेश जी

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