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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-118

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 118वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब  बशीर बद्र साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|

"ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो "

11212    11212    11212       11212

 

मुतफ़ाइलुन     मुतफ़ाइलुन     मुतफ़ाइलुन       मुतफ़ाइलुन

(बह्र: कामिल मुसम्मन सलीम  )

रदीफ़ :- करो।
काफिया :- आ( मिला, हवा, बचा, दिया, कहा, दिखा आदि)

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 24 अप्रैल दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 25 अप्रैल दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

 

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 24 अप्रैल दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

जनाब तस्दीक़ अहमद ख़ान साहब.

हौसला अफ़जाई के लिए बहुत शुक्रिया.आपकी क़ीमती सलाह पर जरूर अमल करुँ गा.

न कभी किसी से कहा करो,न कभी किसी की सुना करो
है फ़िजां में ज़ह्र घुला हुआ,अभी क़ैद घर में रहा करो

मिरे गाँव में जो अज़ीज़ थे,वो लिपट - लिपट के गले मिले

ये बड़े मिज़ाज का शहर है, ज़रा फासले से मिला करो

नया दिन नयी हैं मुसीबतें, नयी रात ख़्वाब डरावने
कि वतन में चैनो - सुकून हो, मिरे साथ मिलके दुआ करो

जहाँ रोशनी का हुजूम हो,वहाँ पर हमारी बिसात क्या
है सियाह रात का ये सफ़र,कभी जुगनू साथ लिया करो

न कमल हो तुम न गुलाब हो , उगे जंगलों में जो फूल हो
न तो क्यारियाँ हैं नसीब में, यूँ ही झाड़ियों में खिला करो

न किसी से कोई सलाह लो , यहाँ मुफ्त मिलते हैं मशविरे
हैं ज़हीन लोग बहुत यहाँ , सदा अपने दिल की सुना करो

ये सफेद कोट जुटे हैं जो , कहीं ख़ाकी वर्दी डटी हुई
कभी झुकके इनको सलाम कर,कभी एहतराम किया करो

जनाब सालिक गणवीर साहब (माफ कीजिएगा अगर नाम सही न लिखा हो तो)

बहुत खूबसूरत शेर कहे हैं, रवानी के साथ जिसके लिए अलग से बधाई| केवल मंदर्जा मिसरों मे थोड़ी सी कमी रह गई है इन्हें दूर कर लीजिएगा|

है अंधेरी रात का ये सफ़र,संग जुगनुओं के चला करो...ये मिसरा बे बहर हो रहा है| 

है अंधेरी रात का ये सफ़र,लिये जुगनुओं  को चला करो.......एक सुझाव है 

ना कमल हो तुम ना गुलाब हो , उगे जंगलों में जो फूल हो.........यहाँ तकाबुले रदीफ़ का ऐब है :"हो" "करो" के साथ मिलकर मतले का भ्रम पैदा कर रहा है|

और कुछ शेरों मे भर्ती के शब्द भी हैं जैसे 

कि वतन में चैनो

वहाँ पर हमारी बिसात क्या

ढेर सारी मुबारकबाद|

आदरणीय राणा प्रताप सिंह जी.

नाम का उच्चारण सही है. हौसला अफजाई के लिए आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ.आप जैसे गुणीजनों का मार्गदर्शन मिलता रहा तो यक़ीन मानिए मैं भी लिखना सीख जाऊँगा. मैं उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में भी आपका प्रेम और मार्ग दर्शन मिलता रहेगा.

आदरणीय,
मेंने ग़ज़ल.कल यहां पोस्ट की.थी।
दिख नहीं रही है। क्या कोई विशेष कारण है। अथवा कहीं अन्य स्थान पर पोस्ट करनी है कृपया मार्ग दर्शन करें।
साभार
ओमप्रकाश अग्रवाल
देना बददुआ भी गुनाह है ऐ बशर तुम इससे बचा करो
शब-ओ-रोज़ मेरी दुआ है तुम किसी के तो हक़ में दुआ करो

कोई ख़ास दोस्त भी है यहां न मुग़ालते में रहो कभी
'ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो'

जो थी जुस्तजू हमें जा-ब-जा न मिले हो वादी-ओ-सहरा में
तुम्हें ढूँढा दैर-ओ-हरम में तो मिले दिल में यूं न छुपा करो

न जवाब-ए-ख़त न पयाम है बड़ी कशमकश में है ज़िंदगी
है महक कुछ उसके बदन की तो ऐ हवा ज़रा तो रुका करो

न वफ़ा की कोई जज़ा यहां न जफ़ा की है सज़ा यहां
तुम्हीं खुद हो मुंसिफ-ओ-मुद्दई ज़रा दिल सँभाल दिया करो

ये वबा -ए-कौरोना है मरज़ जो दवा न इसकी बनी कोई
है इसी में अपनी तो बेहतरी अभी दूर मुझसे रहा करो

मैं बला का मयकश-ओ-रिंद हूँ मेरी बज्द-ओ-मस्ती शबाब में
मय-ए-नाब से जो हो बेशतर ऐ नज़र कभी न झुका करो

शोअरा कहें तो सुनूं भी में कभी छोड़ इश्क़-ओ-रूमानियत
मेरी भूक प्यास का ज़िक्र हो दें वो होंसला कि वग़ा करो

न शराब है न शबाब है ओ बहारों में भी है इज़्तराब
मुझे बेख़ुदी की तलाश है न 'क़दम' दवा कि दुआ करो



ओमप्रकाश अग्रवाल
(क़दम जयपुरी)
जयपुर

मौलिक एवं अप्रकाशित

आ. भाई ओमप्रकाश जी, गजल का प्रयास अच्छा है । हार्दिक हुई है ।

आदरणीय जनाब ओम प्रकाश अग्रवाल साहब मुशायरे मे शिरकत के लिये ढेर सारी मुबारकबाद शेर दर शेर मैं अपनी राय रख रहा हूँ|

देना बददुआ भी गुनाह है ऐ बशर तुम इससे बचा करो
शब-ओ-रोज़ मेरी दुआ है तुम किसी के तो हक़ में दुआ करो॥मिसरा ए-ऊला बह्र से ख़ारिज है|

कोई ख़ास दोस्त भी है यहां न मुग़ालते में रहो कभी
'ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो'....गिरह अच्छी लगाई  है|

जो थी जुस्तजू हमें जा-ब-जा न मिले हो वादी-ओ-सहरा में
तुम्हें ढूँढा दैर-ओ-हरम में तो मिले दिल में यूं न छुपा करो............शेर खुल कर नहीं आ रहा है, शायद कोमा कहीं रह गया है|

न जवाब-ए-ख़त न पयाम है बड़ी कशमकश में है ज़िंदगी
है महक कुछ उसके बदन की तो ऐ हवा ज़रा तो रुका करो..........यहाँ भी सानी मिसरे में तरतीब कुछ गड़बड़ लगती है|

न वफ़ा की कोई जज़ा यहां न जफ़ा की है सज़ा यहां
तुम्हीं खुद हो मुंसिफ-ओ-मुद्दई ज़रा दिल सँभाल दिया करो...ऊला मिसरा बे बहर है, सानी मिसरे मे फिर बात स्पष्ट नहीं है|

ये वबा -ए-कौरोना है मरज़ जो दवा न इसकी बनी कोई
है इसी में अपनी तो बेहतरी अभी दूर मुझसे रहा करो।..........कोरोना पर अच्छा सुझाव है|

मैं बला का मयकश-ओ-रिंद हूँ मेरी बज्द-ओ-मस्ती शबाब में
मय-ए-नाब से जो हो बेशतर ऐ नज़र कभी न झुका करो।...खूबसूरत शेर हुआ है| दाद कबूल कीजिये 

शोअरा कहें तो सुनूं भी में कभी छोड़ इश्क़-ओ-रूमानियत
मेरी भूक प्यास का ज़िक्र हो दें वो होंसला कि वग़ा करो.........ऊला मिसरा बे बहर है और सानी में कुछ स्पष्ट नहीं है|

न शराब है न शबाब है ओ बहारों में भी है इज़्तराब
मुझे बेख़ुदी की तलाश है न 'क़दम' दवा कि दुआ करो........वाह वाह मकते ने कमाल कर दिया ॥ज़िन्दाबाद 

ढेर सारी दाद और मुबारकबाद कबूल कीजिये|

नया रोग छूत का चल पड़ा बे-हिजाब यूँ न फिरा करो
ये तो वक्त है बड़े कह्र का ज़रा रूख पे पर्दा रखा करो।१।
**
बुला मत रखो किसी गैर को यही बात सबसे कहा करो
जहाँ भीड़ भाड़ दिखे तुम्हें,  वहाँ  जाने से भी बचा करो।२।
**
जो निजाम की हो सलाह आप उसी हिसाब रहा करो
"ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो "।३।
**
नयी उम्र का भले जोश  है  नये प्यार की भले फस्ल है
लेके हाथ में यूँ ही हाथ को नहीं हो के मस्त चला करो।४।
**
बचो जितना बच सको इससे बस यही इसका एक इलाज है
नहीं  ज्ञात  कोई  दवा  अभी  इस  रोग  की  जो  दवा  करो।५।
**
मौलिक/अप्रकाशित

आदरणीय लक्ष्मण धामी साहब बहुत खूब समसामयिक गजल कही है| सभी शेर अच्छे हुए हैं मेरी तरफ से ढेर सारी दाद और मुबारकबाद कबूल कीजिये|

आ. भाई राणा प्रताप जी, सादर अभिवादन ।आपकी उपस्थिति और सराहना से गजल मुकम्मल हुई । हार्दिक आभार ..

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बहुत सुंदर एवं सामियक संदेश देती गज़ल। सुंदर सृजन के लिए बधाई।

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