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ग़ज़ल-आश फिर भी न बाज आती है।

२१२२ १२१२ २२

वक्त बेवक्त याद आती है।
बेहया रात दिन रुलाती है।

तेरे खत से महक चुराता हूँ।
तब कहीं एक साँस आती है।

रोज किस्मत मेरी मुहब्बत में।
दर पे आ आ के लौट जाती है।

साफ कह बेवफा सनम तू अब।
मेरी गुरबत से हिचकिचाती है।

जिन्दगी कोसती रही दिल को।
आश फिर भी न बाज आती है।

दिल के हर इक गली मुहल्ले में।
रात भर हिज्र खूं बहाती है।

मौलिक व अप्रकाशित ।

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Comment by Rahul Dangi Panchal on March 1, 2016 at 10:35pm
आदरणीय गिरिराज जी शुक्रिया

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Comment by गिरिराज भंडारी on March 1, 2016 at 10:01pm

आदरणीय राहुल भाई , अच्छी गज़ल कही , दिल से बधाइयाँ आपको ।

Comment by Ravi Shukla on March 1, 2016 at 5:47pm

आदरणीय राहुल जी बढि़या ग़ज़ल कही है आपने

तेरे खत से महक चुराता हूँ।
तब कहीं एक साँस आती है।   बधाई स्‍वीकार करें

Comment by Rahul Dangi Panchal on March 1, 2016 at 5:12pm
जनाब नादिर साहब शुक्रिया
Comment by नादिर ख़ान on March 1, 2016 at 5:07pm

तेरे खत से महक चुराता हूँ।
तब कहीं एक साँस आती है।.. बहुत खूब कहा आदर्नीय राहुल जी, खूबसूरत गज़लके लिये बधाई

Comment by Rahul Dangi Panchal on March 1, 2016 at 3:10pm
जनाब से निवेदन है मेरी यहाँ एक गजल " वक्त को मौत का इनाम आए" पर भी एक नजर डाले
Comment by Rahul Dangi Panchal on March 1, 2016 at 3:08pm
जनाब समर साहब शुक्रिया मैं आपके सुझाव पर कोशिश करता हूँ
Comment by Samar kabeer on March 1, 2016 at 3:00pm
जनाब राहुल डांगी जी आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल से नवाज़ा आपने मंच को,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ।
आख़िरी शैर का सानी मिसरा:-
"रात भर हिज्र ..को इस तरह करलें:-
"हिज्र में रात खु..

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