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मन का "सुदामा होना"लाज़मी था 
तेरी आखो के कृष्ण का इतना असर हो गया
क्या होती है गरीवी
सब कुछ खो जाने के बाद समझा
नही ,आमीर आदमी था
ये मिलन का इंतजार "द्रोपदी का चीर" हो गया
"भगीरथ प्रयत्न" कर-कर
मन आज अधीर हो गया
फिर भी "अग्नि परीक्षा" मेरी अधूरी है
आज भी मेरी-तेरी दूरी है
 अंतर ह्रदय  "दूर्वासा"है
क्रोध के ताप मे भी मिलने की आशा है
जानता है मन मिल कर तुमसे कुबेर हो जाएगा
संताप के ताप से फिर दूर हो जाएगा

मौलिक / अप्रकाशित दिनांक  रचना ०७/०९/१३

दिलीप तिवारी

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 11, 2013 at 3:25pm

अभिव्यक्ति की अंतर्धारा प्रभावित करती है...

किसी की निःशब्द महानता व कर्म विशालता के समक्ष स्वयं को सुदामा समझना बहुत बहुत सुंदरता से व्यक्त हुआ है

अभिव्यक्ति के अंत में ऐसा लगता है कि अंदर का क्रोध ही इस ना पाटी जा सकने वाली विलगता का कारण है... जिसके समाप्त होते ही ये क्षीणता की दीवारें मिट जायेंगी और कुबेर के खजाने सामान अनंत सुख की प्राप्ति होगी 

गहन चिंतन को सुन्दर पौराणिक बिम्बों से बहुत ख़ूबसूरती से व्यक्त किया है..

बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर प्रस्तुति पर 

Comment by दिलीप कुमार तिवारी on September 11, 2013 at 12:16am

मुझे आप लोगो  द्वारा दिया गया कमेंट मेरे लिए आशीर्वाद है जो मेरे कविता को नयी दिशा देगा सादर
प्रणाम के साथ आभार ........................

Comment by annapurna bajpai on September 10, 2013 at 1:36pm

आ0 दिलीप जी सारगर्भित रचना बधाई स्वीकारें । 

Comment by vijayashree on September 10, 2013 at 12:25pm

सुंदर रचना  दिलीप  कुमार जी बधाई स्वीकारें 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 10, 2013 at 12:54am

बहुत सुंदर रचना आदरणीय दिलीप जी बधाई स्वीकारें

Comment by Meena Pathak on September 9, 2013 at 10:55pm

सुन्दर रचना हेतु बधाई स्वीकारें आ० दिलीप जी

Comment by विजय मिश्र on September 9, 2013 at 1:21pm
प्रयोगात्मक शैली में सुंदर रचना ,बधाई दिलीपजी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 9, 2013 at 9:37am
वाह !!! दिलिप भाई वाह !!! धार्मिक, पौराणिक प्रतीकों का बहुत सुन्दर प्रयोग किया !! सुन्दर रचना !! बधाई !

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