For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

नए ख्वाब खुद को दिखाने लगे हैं

 

नए ख्वाब खुद को दिखाने लगे हैं

वो उनमें भी तशरीफ़ लाने लगे हैं

 

समंदर किनारे ठहरने को थोडा

लहरों को कितना मनाने लगे हैं

 

वही बात तुमसे जो कहनी थी छुपकर 

महफ़िल में गाकर सुनाने लगे हैं

 

हैं करते खुशामद सितारों की अब तो

हर इक दर पे सर को झुकाने लगे हैं

 

भुला दे खिलौने दुपहरी के अब तो

तुझे सांझ लोरी सुनाने लगे हैं

 

-पुष्यमित्र

Views: 408

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by वीनस केसरी on March 13, 2013 at 1:35am

बहुत खूब

Comment by Pushyamitra Upadhyay on March 13, 2013 at 12:09am

आदरणीय सौरभ सर आपने जो संशोधन बतलाये हैं उनमें मुझे पूर्व से ही संशय था मगर जैसा कि आपने कहा मायने बदल जायेंगे तो इसीलिए मैं दूसरा उपर्युक्त  हल ढूंढ़ नहीं पाया किन्तु आपने मेरी दुविधा हल कर दी...आपके मार्गदर्शन अक कोटिशः आभारी हूँ| आगे भी आपके मार्ग्धार्शन की कामना करता हूँ, अनुज का प्रणाम स्वीकार कीजिये|


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 11, 2013 at 10:53pm

भाई पुष्यमित्र जी,  इस ग़ज़ल को हमसब से साझा करने के लिए तो पहले बधाई.

इस ग़ज़ल को पढ़ते समय जो मुझे महसूस हो रहा था वो यही था कि या तो ग़ज़लकार ग़ज़ल की बह्र को अपने हिसाब से जानता-समझता है या मैं ही प्रयुक्त हुई बह्र के वज़्न को नहीं समझ पा रहा हूँ.

फिर ध्यान से देखा तो इस ग़ज़ल की बह्र मुतकारिब मुसम्मन सालिम, वज्न: १२२, १२२, १२२, १२२,  है.

इस लिहाज से आपकी इस ग़ज़ल के कुछ मिसरे थोड़ा और ध्यान चाहते हैं.  जैसे -

लहरों को कितना मनाने लगे हैंयहाँ लहरों को ’किनारों’ कर दिया जाय या ऐसा ही कुछ तो समस्या ख़त्म. यानि,  किनारों को कितना मनाने लगे हैं .. .

मगर आगे, ये तो आपको बेहतर मालूम होगा कि मिसरे की कहन में इस तब्दीली का क्या प्रभाव पड़ेगा.

महफ़िल में गाकर सुनाने लगे हैं  = इस मिसरे में भी महफ़िल में  को बदल कर ’भरी बज़्म’ कर दिया जाय समस्या ख़त्म.  यानि, भरी बज़्म गाकर सुनाने लगे हैं ..   या ऐसा ही कुछ

अब ग़ज़ल पर -

कहना न होगा कि इस ग़ज़ल के शेर अत्यंत भावुक हृदय से निकले हैं.

भुला दे खिलौने दुपहरी के अब तो
तुझे सांझ लोरी सुनाने लगे हैं

उपरोक्त शेर के लिए विशेष दाद दे रहा हूँ.. .

Comment by Yogi Saraswat on March 11, 2013 at 11:39am

वही बात तुमसे जो कहनी थी छुपकर 

महफ़िल में गाकर सुनाने लगे हैं

 

हैं करते खुशामद सितारों की अब तो

हर इक दर पे सर को झुकाने लगे हैं

 

भुला दे खिलौने दुपहरी के अब तो

तुझे सांझ लोरी सुनाने लगे हैं

 sundar shabd

Comment by asha pandey ojha on March 9, 2013 at 9:13pm

bahut hi badhiya ..

Comment by ram shiromani pathak on March 9, 2013 at 7:16pm

bahot khoob.........bhai g

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
yesterday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service