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बाक़ी रहा न मैं, न ग़मे-रोज़गार मेरे.

अब सिर्फ़ तू ही तू है परवरदिगार मेरे.


यारब हैं सर पे आने को कौन सी बलायें,

क्यूँ आज मेरी क़िस्मत है साज़गार मेरे.


बरसेगी और तुझपे ? उनके करम की बदली,

तेरा कहाँ मुक़द्दर दिले-रेगज़ार मेरे.


सज्दे में सर किया है जिसने क़लम हमारा,

दे उम्रे-ख़ि़ज़्र उनको ऐ कर्दगार मेरे.


इक ज़िंदगी की बाज़ी थी हुस्न के मुकाबिल,

सो वो भी हार बैठा दिले-बदक़िमार मेरे.


हैं आज हसरतों के वहीं पर मज़ार यारो,

कल तक जहाँ हरे थे ये चमनज़ार मेरे.


मेरे तसव्वुरात से गर वो नहीं हैं गुज़रे,

फिर क्यूँ दिलो-ज़हन हैं यूँ मुश्कबार मेरे.


जिनके करम से दिल है यूँ दाग़-दाग़ अपना,

क्या कहिये कभी वोही थे ग़मगुसार मेरे.


दमे-आख़िरी है उनको आना पड़ेगा 'साबिर'

पिछले जनम के उनसे कुछ हैं क़रार मेरे.

[26/02/1991] 

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Comment

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Comment by satish mapatpuri on September 12, 2011 at 8:53pm

सुन्दर ख्यालात हैं दत्त साहेब ...................... बधाई


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 12, 2011 at 10:01am

इक ज़िंदगी की बाज़ी थी हुस्न के मुकाबिल,

सो वो भी हार बैठा दिले-बदक़िमार मेरे.

बहुत खूब दत्त साहब, बहुत ही खुबसूरत नज़्म प्रस्तुत किया है आपने, भाव प्रधान रचना हेतु आभार आपका |

कृपया ध्यान दे...

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