मन नहीं है
उषा अवस्थी
अब कुछ भी लिखने का, मन नहीं है
क्या कहें ? साहित्य के नाम पर
चलाए जा रहे व्यापार में
ख़रीद-फ़रोख़्त के बाज़ार में
बिकने का मन, नहीं है
अब कुछ भी लिखने का, मन नहीं है
इस दुनिया की इक छोटी सी बस्ती में
रहती हूँ, कोई बड़ी हस्ती नहीं हूँ मैं
शकुनी की शतरंजी झूठी इन चालों से
मोहरों के बेवजह पिटने का, ग़म नहीं है
अब कुछ भी लिखने का, मन नहीं है
नश्वर संसार के काल्पनिक जंजालों की
भ्रान्ति में फँसने का कोई भी, भ्रम नहीं है
अब कुछ भी लिखने का, मन नहीं है
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सुशील सरन जी,आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया प्राप्त कर प्रसन्नता हुई। हार्दिक धन्यवाद आपका,सादर।।
आदरणीय डा0 विजय शंकर जी,रचना अच्छी लगी, जानकर खुशी हुई। हार्दिक आभार आपका,सादर।
आदरणीय उषा अवस्थी जी , रचना अछी है। हाँ , यह भी कहा जाता है कि कभी कभी कुछ लिखना हम लोगों की विवशता भी होती है ,रचना के लिए बधाई , सादर।
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