For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

फूलीं में रस था भवरों की चाहत बनी रही

जब तक भरे थे जाम तो महफ़िल सजी रही
फूलों में रस था भँवरों की चाहत बनी रही

वो सूखा फूल फेंकते तो कैसे फेंकते
उसमे किसी की याद की खुशबू बसी रही

उस कोयले की खान में कपड़ें न बच सके
बस था सुकून इतना ही इज्जत बची रही

कुर्सी पे बैठ अम्न की करता था बात जो
उसकी हथेली खून से यारों सनी रही

दौलत बटोर जितनी भी लेकिन ये याद रख
ये बेबफा न साथ किसी के कभी रही

'आशू' फ़कीर बन तू फकीरीं में है मजा
सब छूटा कुछ बचा तो वो नेकी बदी रही

मौलिक व् अप्रकाशित

Views: 630

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 19, 2020 at 11:12pm

हार्दिक आभार आदरणीय समर सर आपका। आपने अपना बहुमूल्य समय इस संशोधन के लिए दिया । ह्रदय से आभारी हूँ सादर

Comment by Samar kabeer on March 19, 2020 at 6:02pm

जब तक भरे थे जाम तो महफ़िल सजी रही
फूलों में रस था भँवरों की चाहत बनी रही

वो सूखा फूल फेंकते तो कैसे फेंकते
उसमे किसी की याद की खुशबू बसी रही

उस कोयले की खान में कपड़ें न बच सके
बस था सुकून इतना ही इज्जत बची रही

कुर्सी पे बैठ अम्न की करता था बात जो
उसकी हथेली खून से यारों सनी रही

दौलत बटोर जितनी भी लेकिन ये याद रख
ये बेबफा न साथ किसी के कभी रही

'आशू' फ़कीर बन तू फकीरीं में है मजा
सब छूटा कुछ बचा तो वो नेकी बदी रही

---

अब ये ग़ज़ल ठीक है,बधाई आपको ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 3, 2020 at 5:35am

आदरणीय समर सर

रचना को संशोधित किया है। इसकी तकतीय मैंने ऐसे की थी। आप पुनः मार्गदर्शन करें ।अति कृपा होगी

बो2तल 2में1 जब2. त1लक2 थी 1 मय 2 मह2फ़िल2 स1जी2 र 1ही2
फूलों में रस था भँवरों की चाहत बनी रही

वो 2सू2खा 1फू2. ल1 फें2क1ते 2 तो1 कै2से 1फें2 क 1ते 2
उसमे किसी की याद की खुशबू बसी रही

उस कोयले की खान में कपडे तो न बचे
बस था सुकून इतना ही इज्जत बची रही

कुर्सी पे बैठ बातें जो करता अमन की अब
सर इसमें इसतरह बदलाब किया है
कुर्सी पे बैठ बातें जो करता है अम्न की

उस2की2 ह1थे2 ली 1उम्र21 भर2 खूँ 2से2 स1नी2 र1ही2

वो कुर्सियों का बचपने का खेल याद है ?
बैसी उथल पुथल ही तो अब भी मची रही

इसमें ऐसे परिवर्तन किया है
बैसी ही दौड़ भाग तो अब भी मची रही
सर इस पर आपने गौर करने के लिए कहा था ।सर बचपन में एक खेल हम लोग खेलते थे जिसमें खिलाडियों की संख्या से एक कुर्सी काम होती थी जीवन में भी प्रतिस्पर्धी ज्यादा है कुर्सी काम और ध्यान वही लगा रहता है।मेरा आशय तो यही था।इससे ज्यादा मैं सोच नहीं पा रहा हूँ अब तो आप जैसे गुरु का ही मार्गदर्षन दिशा देगा

मुद्दे ही जो नहीं थे वो पानी से बह पड़े
मुद्दे 22 जो1 थे 2 अ1सल2 में1 उन 2 पे2 हिम2 ज1मी2 र1ही2

दौलत बटोर जितनी भी लेना मगर ये सुन
ये बेबफा नहीं किसी के संग कभी रही

आधी उमर तो पाने में आधी बचाने मे
सर इसको ऐसे किया है

आधी हयात पाने में आधी बचाने में

ताउम्र सबके ख्याल में कुर्सी बसी रही
सर इसको ऐसे किया है
ताउम्र सबके जेहन में कुर्सी बसी रही

आ2शू2 फ़1की2 र 1 बन 2फ1की2. रीं 2में 2ब1ड़ा2 म1जा2
सब छूटा कुछ बचा तो वो नेकी बदी रही

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 31, 2020 at 6:42pm

आदरणीय समर सर आपके बेशकीमती मश्विरे के लिए ह्रदय से आभारी हूँ । रचना को दुरस्त करने की कोशिश करूंगा। सर इसमें मैंने 2212 1212 2212 12 बहर में लिखा है। उसके हिसाब से ही  लिखा था। सर उसमे कौन सी बहर लगेगी मेरा मार्गदर्शन  करें । सादर

Comment by Samar kabeer on January 30, 2020 at 5:58pm

//क्या ..कहने आशुतोष भाई सम्पूर्ण गजल लाजवाब हुई है //

जनाब धामी जी,क्या ग़ज़ल बिना पढ़े ही दाद दे दी -;))))

Comment by Samar kabeer on January 30, 2020 at 5:56pm

जनाब डॉ. आशुतोष मिश्रा जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'बोतल में जब तलक थी मय महफ़िल सजी रही'

ये मिसरा बह्र में नहीं है,देखियेगा ।

'कुर्सी पे बैठ बातें जो करता अमन की अब'

इस मिसरे में सहीह शब्द "अम्न"21 है,पहले भी बता चुका हूँ ।

'उसकी हथेली उम्र भर खूँ से सनी रही'

ये मिसरा बह्र में नहीं है ।

'वो कुर्सियों का बचपने का खे याद है ?
बैसी उथल पुथल ही तो अब भी मची रही'

इस शैर पर ग़ौर करें ।

'मुद्दे जो थे असल में उन पे हिम जमी रही'

ये मिसरा बह्र में नहीं है ।

'आधी उमर तो पाने में आधी बचाने में'

इस मिसरे में सहीह शब्द "उम्र"21 है ।

'ताउम्र सबके ख्याल में कुर्सी बसी रही'

ये मिसरा बह्र में नहीं ,'ख़याल'शब्द का वज़्न आपने 21 लिया है,जबकि इसका वज़्न 121 होता है ।

'आशू फ़कीर बन फकीरीं में बड़ा मजा'

ये मिसरा बह्र में नहीं है ।

कृपया ग़ज़ल के साथ अरकान लिख दिया करें,इससे नए सीखने वालों को आसानी होती है ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 29, 2020 at 6:24am

वो सूखा फूल फेंकते तो कैसे फेंकते
उसमे किसी की याद की खुशबू बसी रही

क्या ..कहने आशुतोष भाई सम्पूर्ण गजल लाजवाब हुई है । हार्दिक बधाई । कुछ टंकण त्रुटियाँ रह गयी हैं । देखिएगा ..सादर

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर आपने सर्वोत्तम रचना लिख कर मेरी आकांक्षा…"
6 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे... आँख मिचौली भवन भरे, पढ़ते   खाते    साथ । चुराते…"
6 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"माता - पिता की छाँव में चिन्ता से दूर थेशैतानियों को गाँव में हम ही तो शूर थे।।*लेकिन सजग थे पीर न…"
9 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे सखा, रह रह आए याद। करते थे सब काम हम, ओबीओ के बाद।। रे भैया ओबीओ के बाद। वो भी…"
12 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"स्वागतम"
yesterday
धर्मेन्द्र कुमार सिंह posted a blog post

देवता चिल्लाने लगे हैं (कविता)

पहले देवता फुसफुसाते थेउनके अस्पष्ट स्वर कानों में नहीं, आत्मा में गूँजते थेवहाँ से रिसकर कभी…See More
yesterday
धर्मेन्द्र कुमार सिंह commented on धर्मेन्द्र कुमार सिंह's blog post देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)
"बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय,  मिथिलेश वामनकर जी एवं आदरणीय  लक्ष्मण धामी…"
yesterday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-185

परम आत्मीय स्वजन, ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 185 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
Wednesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रस्तुति पर आपसे मिली शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद ..  सादर"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

आदमी क्या आदमी को जानता है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२२ कर तरक्की जो सभा में बोलता है बाँध पाँवो को वही छिप रोकता है।। * देवता जिस को…See More
Tuesday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service