एक उम्र भर हम
लोगों को समझते रहे।
हालातों को समझते रहे ,
दोनों से समझौता करते रहे ,
दुनिया में समझदार माने गए।
बस अफ़सोस यह ही रहा ,
हमें कोई ऐसा मिला ही नहीं ,
या नसीब में था ही नहीं ,
जिसे हम भी समझदार मानते
और हम भी समझदार कहते।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्षमण धामी मुसाफिर जी , रचना को स्वीकार करने के लिए आभार एवं बधाई के लिए धन्यवाद। सादर।
आ. भाई विजय शंकर जी, सादर अभिवादन । अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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