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रक्षा का बंधन ( लेख ) - डॉo विजय शंकर

रक्षा बंधन बहन-भाई के पारस्परिक स्नेह , प्रेम , एक दूसरे के प्रति जीवन-पर्यन्त चलने वाले दायित्व बोध का एक अत्यंत खुशनुमा पर्व। शायद इसी का एक रूप विकसित हुआ है ," फ्रेंडशिप बैंड " . राखियों का विशाल बाजार , हीरे और अन्य रत्नों से जड़ी लाख लाख रुपये की राखियां, दिल्ली जैसे महानगर में रक्षा बंधन के दिन ट्रैफिक का भर-पूर रश , डी टी सी द्वारा प्रायः बहनों के लिए रक्षा - बंधन को फ्री-सर्विस। कितना सुन्दर लगता है , सब कुछ। एक दिन भाई के लिए , बहन के लिए , वैसे ही जैसे सारी दुनियाँ में एक साथ " मदर्स डे " . कितना उत्साह , कितने तरीके इसे मनाने के , कितने पुरूस्कार , भेंट और " गिफ्ट्स " सामाजिक क्षेत्रों में और दूकानों पर , मात्र लगभग 1200 रूपये की खरीददारी पर लगभग 300 रूपये का हर माँ को एक सजाया हुआ उपहार ( कोस्टा रीका की एक एक दूकान में , हाल ही की बात ) , अमेरिका में मैसेच्यूसेट्स में एक नये बने विशाल वाइल्ड लाइफ पार्क में मदर्स के लिए हमेशा कंसेशन , सिनेमा में सीनियर्स के लिए लगभग पच्चीस प्रतिशत की सदैव ही छूट वाला टिकट। पिछले वर्ष का अनुभव एक रेस्ट्राँ में अचानक पूरे गाजे बाजे के साथ मैनेजमेंट की ओर से प्रत्येक उपस्थित मदर को खूब बड़ा बड़ा गुलदस्ता भेंट किया जाना। अपने अपने तरीके हैं , पर्व मनाने के, संबंधों को मान देने के , अपने से संबंधों को ही नहीं , सिर्फ संबंधों को , रिश्तों के नाम को।
अच्छा लगता है रिश्तों को मान देना , हमारे यहां तो कुछ लोग " मान्य " होते ही हैं , मान्यवर शब्द स्वयं इसी भाव को प्रकट करता है। पर क्या रक्षा बंधन केवल भाई-बहन के बीच का ही बंधन पर्व है ? रक्षा के इस बंधन की आवश्यकता तो सभी रिश्तों में है , सभी जाने-अनजाने के बीच , सभी के जीवन , मान सम्मान के लिए। भाई बहन के बीच तो यह बंधन है ही , पहले तो पंडित जी यजमान को घर घर जाकर रक्षा बांधते थे। मेरे पिता जी बताते थे कि कैसे घर के बड़े बुजुर्ग को राखी के दिन सुबह से रूपये पैसे लेकर बैठते थे और आस-पास के तमाम पंडित जी लोग आकर घर के लोंगों को राखी बांधते थे। इसमें पारस्परिक रक्षा का भाव निहित था , यजमान का और यजमान द्वारा स्वयं पंडित जी और प्रजाजन का।
इसकी आवश्यकता आज भी वैसे ही है , और कब नहीं थी , युद्ध में , शान्ति में , व्यक्ति व्यक्ति में , सैनिक सैनिक में। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ' उसने कहा था ' इसी रक्षा भाव की पृष्ठ-भूमि को प्रकट करती है। आज भी सेना में सैनिकों को अपनी और अपने साथियों की रक्षा का पारस्परिक भाव लेकर रण - क्षेत्र में जाने शिक्षा दी जाती है। सामाजिक जीवन में यह भाव शासक और शासित के बीच होना भी उतना ही आवश्यक है। यह दायित्व-बोध राष्ट्रपति से लेकर हर सिपाही में होना आवश्यक है तभी रक्षा- बंधन को वास्तविक सार्थकता मिलेगी।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Dr. Vijai Shanker on August 22, 2016 at 10:11am
आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी , लेख पर आपकी उपस्थिति एवं अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए आपका ह्रदय आभार। पर्व सांस्कृतिक जीवन का व्यवहारिक रूप दर्शाते हैं , उस पर किसी भी बाह्य व्यक्ति का प्रहार शोभनीय नहीं है। ये बातें सांस्कृतिक विरासत के अन्तर्गत आतीं हैं और व्यवस्था को इन पर ध्यान रखना चाहिए।
वैसे हमें भी जागरूक रहना चाहिये। सांस्कृतिक पराभव बहुत मंहगा पड़ता है। ऐसे विषयों पर चर्चा होनी चाहिए।
सम्प्रति आपका आभार एवं धन्यवाद , सादर।
Comment by Ashok Kumar Raktale on August 21, 2016 at 10:29pm

//पर क्या रक्षा बंधन केवल भाई-बहन के बीच का ही बंधन पर्व है ? रक्षा के इस बंधन की आवश्यकता तो सभी रिश्तों में है , सभी जाने-अनजाने के बीच , सभी के जीवन , मान सम्मान के लिए।//..........

बिलकुल जरूरी है हर रिश्ते को जोड़े रखने के लिए इस तरह के त्यौहारों की आवश्यकता है. बहुत सी बातें हैं जो होना चाहिए किन्तु नहीं होतीं. आपने रक्षाबंधन के दिन बहनों को मुफ्त बस सेवा का जिक्र किया है. हमारे यहाँ भी यह व्यवस्था स्थानीय प्रशासन ने की थी. किन्तु रक्षा बंधन के अवसर पर बहने हाथों में मेहँदी भी लगाया करतीं थीं, किन्तु अब नहीं लगातीं क्यों कि मिशनरी के कई स्कूलों को इससे तकलीफ है, शासन ने कभी इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया. त्यौहार की सार्थकता दायित्व बोध के साथ ही उसका स्वरुप भी महत्वपूर्ण है. सुन्दर आलेख. सादर.

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