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काश!


काश!अपना कह देने भर से ही

गैर अपने होते

तो अनजान शहर में भी

अजनबी लोगों से घिरे

खुशनमा सपने होते

मगर हकीकत तो यह की

अपने ही शहर में अपने

बेगानों सा मिला करते हैं

क्यों खफा रहते हैं आप हम से

इस पर यह गिला करते हैं



रजनी छाबरा

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Comment

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Comment by Rash Bihari Ravi on June 3, 2010 at 2:42pm
काश!

अपना कह देने भर से ही

गैर अपने होते

bahut khubsurat
Comment by ABHISHEK TIWARI on June 3, 2010 at 1:34pm
शहर की दूरी से ज़्यादा दिल की दूरी चोट करती है,
Comment by Kanchan Pandey on June 3, 2010 at 12:51pm
waah rajni didi waah, phir aek shandar rachnaa, aapki rachnao ka besabri sey intjaar rahta hai,
Comment by Admin on June 2, 2010 at 12:49pm
काश!अपना कह देने भर से ही

गैर अपने होते
रजनी बहन, अपना कह देने से अपना तो अपना हो ही नहीं पा रहा है आज के समय मे , गैर की क्या बात करे, बहुत बढ़िया रचना है , जबरदस्त ,
Comment by Anand Vats on June 2, 2010 at 12:14pm
तो अनजान शहर में भी

अजनबी लोगों से घिरे

खुशनमा सपने होते


aapki lekhni ka jawab nahin .. hats off 2 u
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on June 2, 2010 at 11:17am
काश!अपना कह देने भर से ही

गैर अपने होते

तो अनजान शहर में भी

अजनबी लोगों से घिरे

खुशनमा सपने होते
bahut hi badhiya rachna hai ye rajani didi.....dil khush ho gaya subah subah ye rachna padh kar.....
bahut bahut dhanyabaad aapka

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 2, 2010 at 10:33am
अपने ही शहर में अपने

बेगानों सा मिला करते हैं

क्यों खफा रहते हैं आप हम से

इस पर यह गिला करते हैं,

Waah Rajni didi, umdda kavitawo ki shrinkhala mey aek aur behtarin kavita, bahut hi sunder kalpana hai, kaash aisa hi hota, bahut bahut aabhar,

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