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लड़की को डायरिया थी।आज उसे इस तीसरे नामी हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया।रिपोर्ट की फाइलें साथ थीं।घरवाले परेशान थे,पर हॉस्पिटल तो जैसे देवालय हो।सब लोग बड़े आराम से अपनी अपनी ड्यूटी में लगे थे।डॉक्टर आया।सुना था कि बड़ा डॉक्टर है।उसने सरसरी निगाह से कुछ ताजा रिपोर्टें देखी।फिर दवाएं लिखने लगा।तीमारदारों में से एक ने यूरिन कल्चर की रिपोर्ट की तरफ इंगित करना चाहा,पर डॉक्टर ने कोई तवज्जो नहीं दी।दवाएं लिख दी।इलाज शुरू हुआ।लड़की की तबीयत बिगड़ती ही गई।पेट फूलता जा रहा था।फिर रात को घरवालों ने डॉक्टर की लिखी ताजा दवा बंद कर दी।लड़की को कुछ चैन मिला।
सुबह पड़ताल शुरू हुई।जूनियर डॉक्टर ने कल्चर की रिपोर्ट देखी।रात को लिखी डॉक्टर की दवा से मिलान कर तो बोली,
"यह दवा रेसिस्टेंट है।किसने दी?"
"डॉक्टर ने।"
जूनियर डॉक्टर वह कैप्सूल बंद करने को कहकर चली गई।
घरवाले हॉस्पिटल के डायरेक्टर से मिले। बाहर से डॉक्टर बुलाकर लड़की की जांच कराने की बात की।डायरेक्टर ने हॉस्पिटल की पॉलिसी का हवाला देकर मना कर दिया। हां, मरीज की बेहतर देखभाल का उसने आश्वासन जरूर दिया।
जब दवा और रिपोर्ट की चर्चा हुई,तो डायरेक्टर बोला,
"इससे कुछ खास दिक्कत नहीं होगी। हां,यह दवा कुछ काम नहीं करेगी।"
"यानी बेमतलब की दवा मरीज खाती रहे?"तीमारदार ने झिड़का।
"नहीं,ऐसा नहीं है। सिन्हा जी अच्छे डॉक्टर हैं।"
"हां,वो तो सामने है।"
"चलिए जरा हम मरीज को देखते हैं।" डायरेक्टर ने बात घुमाने की कोशिश की। वे लोग लड़की के कमरे की तरफ बढ़े।

मरीज के कमरे से निकलते हुए डायरेक्टर कह रहा था, "हम पूरा ध्यान रखेंगे।आप निश्चिंत रहें।"
फिर एक वार्ड के एक बेड के पास से बूढ़ी औरत हस्पताल वालों को कोस रही थी,
"अरे नासपीटो! मेरा बेटा...... हाय.....मार डाला तुम लोगों ने उसे।"
"क्या हुआ माताजी?"डायरेक्टर बोला
"अरे मवाली है इस हस्पताल का मालिक।पहले उसका बेटा मरा।अब औरों के बेटों को मार रहा है हारामजा दा।"
"ऐं....ऐसा ?"डायरेक्टर इतना ही कह पाया।
"ऐ सा ..? बताऊं तुम्हे?"
"हां।"
"तो सुन।मेरा बेटा कल गुजर गया था।हॉस्पिटल के हरामजादों ने बताया कि नब्ज चालू है।टेस्ट किए।इलाज के नाम पर लाखों रुपए ऐंठे।...और आज सच उगल दिया लफंगों ने।"
"भरोसा नहीं होता।बड़े बड़े डॉक्टर हैं यहां।महंगी मशीनें हैं।"
"इसीलिए यहां यह सब होता है।पर तू है कौन रे, जो इनकी इतनी तरफदारी करता है?"
"म म.. मैं..।"डायरेक्टर इतना ही कह पाया।उसकी सांसें उखड़ गईं।वह चलने लगा।लड़की के तीमारदार बोले,"अरे भाई डायरेक्टर साहब!माताजी का आशीष तो लेते जाओ"
फिर वह बूढ़ी जूते हाथ में लिए डायरेक्टर के पीछे दौड़ी।वह उसे पहचान चुकी थी।डायरेक्टर भागने लगा।
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by Manan Kumar singh on April 10, 2020 at 12:07pm

आभार आदरणीय।

Comment by Samar kabeer on January 3, 2020 at 3:39pm

जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।कि

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