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ख़्वाब ....

चोट लगते ही
छैनी की
शिला से आह निकली
जान होती है
पत्थर में भी
ये अहसास हुआ आज
छीलता रहा पत्थर को
निकालना था एक ख़्वाब
बुत की शक्ल में
उसके गर्भ से
रो दी शिला
जब
ख़्वाब
बुत में
धड़कने लगा
क्या हुआ
जो रिस रहा था खून
बुतगर के हाथ से

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on March 21, 2019 at 3:12pm

आदरणीय  बृजेश कुमार 'ब्रज जी सृजन पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार। होली मुबारक।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 20, 2019 at 12:51pm

वाह आदरणीय सुशील जी बहुत ही भावात्मक कविता है...

Comment by Sushil Sarna on March 18, 2019 at 5:11pm

आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब .... सृजन के भावों को आत्मीय मान देने एवं अपने अमूल्य सुझाव से अलंकृत करने का दिल से आभार। अभी सुझावानुसार संशोधित करता हूँ सर। हार्दिक आभार।

Comment by Samar kabeer on March 16, 2019 at 7:31am

जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत सुंदर कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

'बुतफरोश के हाथ से'

इस पंक्ति में 'बुतफ़रोश' की जगह "बुतगर" कर लें,क्योंकि 'बुतफ़रोश' का अर्थ बुत बेचने वाला होता है ।

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