अगर दुनियां में आज लोग दुखी हैं तो उसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार में उन जैसे लोगों को मानता हूँ जो खाते कम गाते ज्यादा हैं
आप बहुचर्चित food shows का उदाहरण ले सकते हैं जिसमें आपको आसानी से एक महिला या पुरुष दिख जायेगा जो खाना चखने के दौरान अजीब अजीब आवाजें निकालना शुरू कर देता हैं
उनके चटकारे देखकर, देखने वाले मनुष्य को अपना अच्छा खासा स्वादिष्ट भोजन भी कम स्वादिष्ट लगने लगे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं
किसी महापुरुष से सुना था के मनुष्य इस बात से दुखी नहीं के उसके घर में अँधेरा है
वो इस बात से दुखी है के उसके घर में पड़ोसी के घर जितना उजाला क्यों नहीं है
ये समस्या और खतरनाक जब हो जाती है जब पड़ोसी के घर में भी अँधेरा होने की बावजूद भी उजाला प्रतीत होने लगे
और ऐसी प्रतीति को कराने में आजकल के पड़ोसी बड़े ही पारंगत हो गए हैं
पड़ोसी से मेरा तात्पर्य उन लोगों से है जिनसे हम जीवन में सीधे या परोक्ष रूप से interact करते हैं, या फिर कह सकते हैं के वो लोग जिन्हें हम अपने विचारों में जगह देते हैं
हाँ तो में ये कह रहा था के आजकल ऐसे 'कम खाने और ज्यादा गाने' वाले लोग अपनी इस कला में काफी होशियार हो गए हैं
आपकी संपत्ति कितनी भी पुरानी और कबाड़ा क्यों ना हो पर अगर आपको जबरदस्ती की detailing निकलने का ज्ञान प्राप्त है तो वही संपत्ति antique बन सकती है
हवाई जहाज में air hostess को गहराई से मुस्कराते देख लें तो आजकल की sophisticated महिलाओं को लग सकता है के जीवन का असली सुख तो बेवक्त हवा में उड़ने में और यात्रियों की जी हुजूरी करने में ही है
फोटो में अपने दोस्तों को Gate way of india के सामने खड़े होकर विचित्र विचित्र poses में आत्मविभोर होते देख किसी का भी मन उस चर्चित इमारत को देखने के लिए लालाहित हो सकता है जिसे आगे भीड़ भरी सड़क और पीछे गंदगी भरे समुंदर के इलावा कुछ नहीं
बड़े बड़े अभिनेता अभिनेत्रियों और Page 3 के लोगों को देख कर उनके जीवन में आनंद की बाड़ होने का जब हम अंदाज़ा लगा लेते हैं तो हम ये भूल जाते हैं के उन्ही महानुभावों को जीवन के सहज सुख के लिए भी शराब की बेहोशी में डूबे रहना पड़ता है
अब बेचारे दुखी लोग भी क्या करें
काश उन्हें भी पांच सितारा होटल के कमरे सोने को मिल पता तो वो भी जान पाते के नींद अपने छोटे से घर के कमरे में ज्यादा अच्छी आती है
वो तो बेचारे उन मह्त्वकान्षाओं की अग्नि में जलते रहते हैं जिनका आनंद के जगत में कोई महत्व नहीं
अकसर ये देखा गया है के मनुष्य अपनी महत्वकान्षाओं के पूर्ण हो जाने पर एक निराशा से भर जाता है
के जिस सुख की उसने कल्पना इस मुकाम पर की थी वैसा सुख उसे क्यों प्राप्त नहीं हो रहा.. और वो सोचता रहता है के जरूर कुछ कमी रह गयी शायद
और फिर से वो उन्ही कमियों को पूरा करने के चक्कर में भागने लगता है और जीवन भर असंतुष्ट रहता है
वरना कोई कारण नहीं बनता के आजकल के वृद्ध भी इतने असंतुष्ट और फितूली नज़र आते हैं
अपने अब तक के जीवन में तो बस इतना जान पाया हूँ जी
के 'जब नींद अच्छी आती है ना, तो सपने भी नहीं आते'
उम्मीद है आप समझ गए होंगे..
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